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समन्वय का एक ऐतिहासिक पर असफल प्रयास
पिछले प्रकरणों में चैत्यवासी परम्परा, भट्टारक परम्परा, यापनीय परम्परा आदि विभिन्न परम्पराम्रों के उद्भव, विकास, प्रचार-प्रसार एवं उनके कार्य-कलापों पर जो प्रकाश डाला गया है उससे सहज ही यह प्रकट हो जाता है कि देवगिरिण क्षमाश्रमरण के स्वर्गस्थ होने के उत्तरवर्ती काल में जैन धर्म की अध्यात्मपरक मूल परम्परा के स्थान पर द्रव्य परम्पराओं का प्रायश: सर्वत्र वर्चस्व स्थापित हो गया था और लोक प्रवाह भाव अर्चना को भूल कर द्रव्यार्चना को ही धर्म और धर्म के स्वरूप का मूल समझने लगा था ।
द्रव्य परम्परा, द्रव्यार्चना अथवा द्रव्य पूजा के वर्चस्व काल में जो मूल भाव परम्परा में शिथिलाचार का प्राबल्य उत्तरोत्तर बढ़ता गया उससे मुमुक्षु साधुत्रों hat बड़ी चिन्ता हुई ।
मूल परम्परा के वर्चस्व को पुनः स्थापित करने के लिये अनेक श्रात्मार्थी मुमुक्षु श्राचार्यों एवं श्रमणों वादि ने अनेक बार प्रयास किये । पर उनके परिणाम आशानुकूल नहीं निकले । इस सम्बन्ध में विस्तृत रूप से आगे यथास्थान विचार किया जायेगा । ऐसे प्रयत्नों के असफल होने पर भी वे महापुरुष निराश नहीं हुए । उनके प्रयत्न निरन्तर जारी रहे । इसका प्रमाण है समय-समय पर चत्यवासी परम्परा के अन्दर से ही प्रकट हुए क्रियोद्धारक सन्त ।
जैन परम्परा का देवद्विगणि क्षमाश्रमण से उत्तरवर्त्ती काल का साहित्य इस बात का साक्षी है कि इन द्रव्य परम्पराओंों के वार्द्धक्य काल में भी समय-समय पर अनेक आत्मार्थी श्रमणों ने आगमों से धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझ कर इन द्रव्य परम्पराओं के विरुद्ध विद्रोह किया। उन्होंने प्रपनी द्रव्य परम्पराओं से पूर्णत: बचकर भाव परम्परा के प्रचार-प्रसार के लिये जीवन भर अथक प्रयास किये । उनके प्रयास प्रांशिक रूप में ही सफल हुए । यदि यह कह दिया जाय कि उन क्रियोद्धारकों में से अधिकांश को अपने प्रयास में वस्तुतः असफलता का ही
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