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द्रव्य परम्परात्रों के सहयोगी राजवंश ]
[ ३२३ होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन के छठे सेनापति ऐच थे। ये महादण्डनायक मंगराज के ज्येष्ठ भ्राता बम्म चमपति के पुत्र थे। दण्डनायक ऐच अपने पिता, पितृव्य एवं चचेरे लघु भ्राता के समान धर्म-नीति और राजनीति दोनों ही में समान रूप से निष्णात थे। ये युद्ध शौण्डीर भी थे और धर्म धुरा धौरेय भी। ऐच ने अपने जीवनकाल में एक ओर अनेक युद्धों में विजयश्री प्राप्त की, तो दूसरी ओर कोपण बेल्गुल आदि अनेक स्थानों में जिन मन्दिरों एवं वसदियों का निर्माण भी करवाया और अन्त में प्रायु का अवसान काल उपस्थित होने पर समस्त सांसारिक कार्य-कलापों से उन्मुख हो अशन-पानादि का जीवन-पर्यन्त त्याग करके तथा सम्पूर्ण पापों की आलोचना कर संलेखना-संथारा पूर्वक पण्डित-मरण (सन्यसन) विधि से शक सं. १०५७ (ई. सन् ११३५) में मृत्यु का वरण किया ।'
महाराजाधिराज विष्णु वर्द्धन के सातवें दण्डनायक बलदेवण्ण और आठवें दण्डनायक मादिराज भी आदर्श जिनभक्त थे।
इस प्रकार होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन के आठों ही सेनापति प्रगाढ निष्ठावान जैन धर्मानुयायी एवं आदर्श श्रावकोत्तम थे। विष्णवर्द्धन के आठों ही स्वामिभक्त सेनापतियों ने जीवनभर अपने स्वामी के चरण-चिह्नों का अनुसरण करते हुए होयसल राज्य की अभिवृद्धि एवं समृद्धि के अभिवर्द्धन के साथ-साथ जिन शासन की सेवा के, जैन धर्म की रक्षा के तथा जैन संघ की प्रतिष्ठा को उत्कर्ष की ओर अग्रसर करने के अनेक उल्लेखनीय कार्य किये और अपने-अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक एक आदर्श सच्चे जैन के रूप में श्लाघा योग्य पण्डित मरण का वरण किया। वे सब के सब सच्चे अर्थों में कर्मठ कर्मवीर एवं धर्मवीर थे।
इन सब तथ्यों से सिद्ध होता है कि होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन अपने बाल्यकाल से जीवन के अन्तिम क्षणों तक जैन धर्मावलम्बी, जिन शासन का संरक्षक
और संवर्द्धक रहा। मकुंलि किले के अन्दर की वसदि के एक शिलालेख के अनुसार विष्णुवर्द्धन का राज्य अति विशाल था। पूर्व, दक्षिण और पश्चिम में इसके राज्य की सीमा समुद्र और उत्तर में पेोरे को इसने अपने राज्य की सीमा बनाया।
नरसिंह प्रथम (ई. सन् ११५२ से ११७३) महाप्रतापी होयसल नरेश विष्णुवर्धन के पश्चात् इस राजवंश का राजा नरसिंहदेव हुआ। यह भी अपने पिता के ही समान धर्मनिष्ठ, साहसी, योद्धा, प्रजावत्सल और लोकप्रिय राजा था। नरसिंह देव ने जैन धर्म के वर्चस्व की अभिवृद्धि एवं प्रचार-प्रसार के अनेक कार्य किये।
' जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, लेख सं. १४४ (३८४) पृ. २६४-६६ २ जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, लेख सं. ३७६ पृ. १५७-१६३
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