________________
३२२ ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ के साथ-साथ “ोह घरट्ट जिनालय" “शान्तिश्वर वसदि", "त्रैलोक्य रंजन वसदि" अपर नाम "वोप्पण चैत्यालय" आदि भव्य मन्दिरों तथा वसदियों का ई० सन् ११३३ और ११३८ के आस-पास निर्माण करवाया। वोप्प का अपर नाम एचरण भी था।' बोप्प दण्डनायक ने जिन धर्म की प्रभावना वर्द्धक एवं सर्व साधारण के हित के अनेक कार्य किये । जब गंगराज के ज्येष्ठ भ्राता-बम्म चमू पति के पुत्र दण्ड नायक ऐच ने ई० सन् ११३५ में श्रवण बेल्गुल में संल्लेखना पूर्वक घर-द्वार, असन-पानादि का त्याग कर सन्यसन (पंडित मरण) विधि से प्रारणोत्सर्ग किया, उस समय बोप्प दण्डनायक ने अपने दिवंगत ज्येष्ठ बन्धु दण्डनायक ऐच की स्मृति में निषद्या का निर्माण करवाया और ऐचिराज द्वारा निर्मित कराई गई. वसदियों के प्रबन्ध आदि के लिये गंग समुद्र की कुछ भूमि का माघचन्द्र देव को दान किया।
होयसल नरेश विष्णवर्द्धन के चौथे और पांचवें दण्डनायक (सेनापति) भ्रातृद्वय क्रमशः मरियाने और भरत अपने समय के अग्रणी जैन धर्मानुयायी और परम जिन भक्त थे। ये दोनों भाई अग्रगण्य मिष्ठ होने के साथ-साथ बड़े ही शुरवीर, साहसी एवं अप्रतिम योद्धा थे । तत्कालीन शिलालेखों के अनुसार इन बन्धु द्वय का होयसल राजवंश के साथ पीढ़ियों का घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण महाराजा विष्णुवर्द्धन ने सर्वाधिकारी, माणिक्य भण्डारी, प्राणाधिकारी, चम्पति प्रादि महत्वपूर्ण पद प्रदान किये । विष्णूवर्द्धन ने अपने राज्य की धुरा को वहन करने में मरियाने को पट्ट-राज्य-गजेन्द्र तुल्य सक्षम-समर्थ समझकर महासेना पति पद पर अधिष्ठित किया । दण्डनायक मरियाणे के लघु सहोदर महामंत्री तथा दण्डनायक भरत ने गंगवाडी में ८० नवीन बस्तियों का निर्माण और २०० जीर्ण-शीर्ण वसदियों का जीर्णोद्धार करवाया। भरत चमूपति ने गोमटेश की सीढ़ियों, इस तीर्थ स्थान में द्वार की शोभा-वृद्धि हेतु भरत और बाहुबलि की मूर्तियों का निर्माण करवाया। महाप्रधान भरत ने गोमटेश्वर की रंग शाला का परकोटा भी बनवाया। सिंदगेर की वसदि के लिये इन्होंने विष्णुवर्द्धन से भूमि भी प्राप्त की। इस प्रकार इन दोनों भाइयों ने जिन धर्म की प्रभावना एवं जैन संघ की श्रीवृद्धि के अनेक कार्य किये।
इन दोनों महादण्डनायकों के गुरु देशी गण पुस्तक गच्छ के आचार्य माघनन्दि के शिष्य गण्डविमुक्त मुनि थे। महाराजाधिराज विष्णुवर्द्धन के ये दोनों महा दण्डनायक विष्णूवर्द्धन के पुत्र महाराजाधिराज सिंहदेव प्रथम के शासन काल में भी कतिपय वर्षों तक महादन्ड नायक पद पर रहे।
१. जैन शिलालेख संग्रह, भाग १ लेख सं० ६६ (१२०), पृष्ठ १४६ - २. जैन शिलालेख सं० भाग १ लेख सं० १४४ (३८४), पृष्ठ २६४-२६६ __3. जैन शिलालेख संग्रह भाग ३ लेख सं० ३०७, ३०८, ४११
४. जैन शिलालेख सं० भाग १, लेख सं० ११५ (२६७), पृष्ठ २२७-२२८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org