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द्रव्य परम्पराअों के सहयोगी राजवंश ]
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धर्म की धूरा का वहन करने के साथ-साथ राज्य की धुरा के वहन करने में भी अद्भूत धौरेयता प्रदर्शित की। गंगराज ने न केवल कर्णाटक के ही अपितु सम्पूर्ण दक्षिणापथ के अभ्युदय, अभ्युत्थान एवं उत्कर्ष के लिये जीवन-पर्यन्त बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया।
होयसल नरेश विष्णवर्द्धन का सन्धि-विग्रहिक परिणस भी परम जिनोपासक और जैन धर्मावलम्बी अधिकारियों में अग्रगण्य एवं जैन संघ को उत्कर्ष की ओर अग्रसर करने वाले कार्यों में महादण्ड नायक गंगराज का अनन्य सहयोगी था। राज्य सेवा और धर्म सेवा के साथ-साथ पुरिगस ने मानव सेवा के अनेक उल्लेखनीय कार्य किये । उसने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त कर होयसल राज्य की प्रतिष्ठा
और शक्ति में अभिवद्धि की। युद्ध पीडित किसानों, व्यापारियों एवं प्रजा के सभी वर्गों को उसने सभी भांति की सहायता प्रदान कर उनके अस्त-व्यस्त जीवन को सुचारु रूपेण पुनसंस्थापित किया। पुणिस ने त्रिकूट वसदि का निर्माण करवाया और गंगवाडी की सभी वसदियों को आत्मनिर्भर बनाया।
होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन का पुत्रवत् प्रिय एव परम विश्वास पात्र दूसरा दण्डनायक इम्मडि बिट्टियण भी तत्कालीन जैनधर्मावलम्बियों में अग्रणी एवं प्रमुख जिन भक्त था। छाया के समान सदा विष्णुवर्द्धन के साथ रहने के कारण वह राज भवन में एवं लोक में विष्णु दण्ड नायक के नाम से विख्यात था। आचार्य श्रीपाल विद्य जी विष्णुवर्धन के गुरु थे। उन्हीं का विष्णु दण्डनायक भी निष्ठावान् गृहस्थ शिष्य था। उस समय के महादानियों में इसकी गणना की जाती थी। दण्ड नायक विष्णु ने जैन धर्म को श्रीवृद्धि एवं लोक कल्याण के अनेक कार्य किये।
जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है दण्डनायक विष्णु ने होयसल राज्य की राजधानी दोर समुद्र में, ई० सन् ११३७ में विष्णुवर्द्धन की चिर स्मृति के लिये "विष्णुवर्द्धन जिनालय" नामक एव भव्य एवं विशाल जिनालय का निर्माण करवाया । इस जिनालय की सुव्यवस्था, सार सम्हाल एवं मुनिजनों के
आहार आदि की व्यवस्था के लिये महादण्ड नायक विष्णु ने महाराजा विष्णु वर्द्धन के हाथों बीज बोल्ल नामक ग्राम प्राप्त कर अपने गुरु श्रीपाल विद्य को दान में दिया ।'
विष्णूवर्द्धन का तीसरा दण्डनायक बोप्प भी अपने पिता महा दण्डनायक गंगराज के समान जैन धर्म का सबल संरक्षक, शूरवीर, धर्म निष्ठ और परम जिन भक्त था। इसने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार एवं श्रीवृद्धि के अनेक कार्यों के निष्पादन
' जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, लेख संख्या ३०५, पृष्ठ १-१२
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