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। जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग ३ सिद्धान्त देव को उस तिप्पूर का दान कर दिया। संभवतः मेघचन्द्र सिद्धान्त देव यापनीय संघ के प्राचार्य थे।'
गंगराज ने तैलंगों और कन्नेगाले में चालुक्य नरेश त्रिभुवन मल्ल पेर्माडि देव को रणभूमि में पराजित कर अपने साहसपूर्ण पराक्रम का परिचय दिया।
गंगराज ने तलकाडु, कोंगु, चेंगिरि आदि दुर्जेय दुर्गों पर अधिकार किया और प्रदिपम, तिगल, दाम, दामोदर आदि शत्रुओं को युद्ध में परास्त किया। दुर्जेय शत्रुनों को परास्त करने के उपलक्ष में प्रसन्न हो विष्ण वर्द्धन ने उन्हें गोविन्द वाड़ी नामक ग्राम परितोषिक रूप में प्रदान किया जिसे भी गंगराज ने गोम्मटेश्वर की पूजा व्यवस्था के निमित्त दान में दे दिया।
विष्णूवर्तन के प्रधान सेनापति गंगराज ने शक सं. १०४० (ई. सन् १११८) के पास-पास श्रवण बेलगोल से उत्तर में प्राधा कोस पर "जिननाथ पुर" नामक एक नगर बसाया। शक सं. १०३६ (ई० सन् १११७) के आस-पास गोमटेश्वर के चारों ओर परकोटे का निर्माण करवाया।
प्रधान सेनापति गंगराज पुस्तक गच्छ के प्राचार्य शुभचन्द्र सिद्धान्त देव के श्रद्धा निष्ठ श्रावक शिष्य थे। गंगराज ने अपने गुरु शुभचन्द्र सिद्धान्त देव, अपनी माता पोचि कव्वे और धर्मपनि लक्ष्मी के स्मारक बनवाये । प्रधान सेनापति गंगराज ने जैनधर्म को प्रतिष्ठा के सर्वोच्च पद पर अधिष्ठित करने के लिये इतने अधिक महत्वपूर्ण कार्य किये कि उन सबकी पुष्टि करने वाले शिलालेखों आदि का विस्तारभय से यहां उल्लेख करना संभव नहीं। यही कारण है कि ईसा की दशवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच की अवधि में चामुण्डराय, गंगराज और वोप्पदेव दक्षिणा पथ में जैनधर्म के तीन महान माघार स्तम्भ एवं संरक्षक गिने गये । इनमें भी गंगराज का स्थान सर्वोपरि माना गया है।
गंगराज ने अनेक जिन मन्दिरों एवं वसदियों की ही भांति अनेक ध्वस्त नगरों का भी पुननिर्माण करवाया।' मानव जीवन के परम लक्ष्य-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों की साधना में जीवन भर निरत रहते हुए गंगराज ने .. जन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेख सं० २६३ __, , , १, लेख सं० ५६
. . . . लेख सं० ५६ और १० " , , , लेख सं० ४७८ (३८८) पृ० ३७७-३७८
लेख सं० ७५ प्रौर ७'.
लेख सं० ५६ (७३) जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, लेख सं० ४११
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