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________________ द्रव्य परम्परागों के सहयोगी राजवंश ] [ ३१६ गंगराज का जन्म कर्णाटक प्रदेश के कौण्डिन्य गोत्रीय ब्रह्मक्षत्र परिवार में हुप्रा । यह परिवार परम जिन भक्त और जैन धर्मानुयायियों में अग्रणी माना जाता था। ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी के अनेक शिलालेख इस कट्टर जैन धर्मानुयायी सेनापति की यशोगाथाओं से भरे पड़े हैं। गंगराज द्वारा जैन धर्म की श्रीवृद्धि, प्रचार, प्रसार एवं संरक्षण के लिये किये गये कार्यों का लेखा-जोखा करने पर उन्हें सम्पूर्ण दक्षिणा पथ का, जैन धर्म का प्रमुख आधार स्तम्भ कहा जाय तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। श्रवण वेल्गोल की शासन वस्ति के सम्मुख एक शिला पर उट्ट कित लेख में इन्हें गोम्मटेश्वर की विशाल मति के निर्माता एवं प्रतिष्ठापक चामुण्डराय से भी शतगुना अधिक जिन प्रभावक बताया गया है ।' अनेक शिलालेखों में गंगराज को "श्री जैन धर्मामृताम्बुधिविवर्धन सुधाकर", "सम्यक्त्वरत्नाकर", "विष्णुवर्द्धन भूपाल होय्सल महाराज राज्याभिषेक पूर्ण कुम्भ", "धर्म हयोद्धरण मूल स्तम्भ", "विष्णुवर्द्धन होय्सल महाराज राज्य समुद्धरण", "जिनराज राजत् पूजा पुरन्दर", "कर्णाटकघरामरो अंस", "जिन मुख चन्द्रवाक् चन्द्रिका, चकोर", "विशुद्धरत्न त्रया कर", "चारित्र लक्ष्मी कर्णपूर", "जिन शासन रक्षामणि" एवं "द्रोह घरट्ट" आदि उच्चकोटि की उपाधियों से विभूषित किया गया है ।। सेनापति गंगराज ने अगणित ध्वस्त जैन मन्दिरों एवं वसदियों का पुननिर्माण एवं अनेक मन्दिरों एवं वसदियों का नव-निर्माण, करवाकर उनके प्रबन्ध एवं श्रमणों के आहार आदि के लिए स्थान-स्थान पर भूमिदान दिया। महा दानी गंगराज ने जैन धर्म की श्रीवृद्धि हेतु अनेक उल्लेखनीय दान प्रदान कर गंगवाडी ६६००० को कोपरण के समान चमकाया। होयसल राजा विष्णवर्द्धन के राज्य को शक्तिशाली और विशाल बनाने में उसके प्रधान सेनापति गंगराज का सर्वाधिक उल्लेखनीय योगदान रहा। गंगराज ने अपने स्वामी के दुर्जय प्रबल शत्रु नरसिंह वर्म और चोल राज के अधीनस्थ इडियम आदि अनेक शत्रु शासकों की सम्मिलित विशाल सेनामों को रणांगण में पराजित कर विशाल भू भाग पर अपने स्वामी की विजय वैजयन्ती फहराई। इस प्रति महत्वपूर्ण विजय से विष्णवर्द्धन का राज्य एक प्रबल शक्तिशाली राज्य बन गया। इस विजय से विष्णवर्द्धन इतना अधिक प्रसन्न हम्रा कि उसने गंगराज को मुंह मांगा वरदान देने की प्रतिज्ञा की। गंगराज ने उस वरदान के उपलक्ष में तिप्पूर का स्वामित्व मांगा। राजा ने तत्काल गंगराज को तिप्पूर का स्वामित्व प्रदान कर दिया। गंगराज ने क्राणूर गण तिन्त्रिणिक गच्छ के प्राचार्य मेघचन्द्र ' २ 3 जैन शिलालेख संग्रह भाग १, लेख सं. ५६ (७३) पृ० सं. १३८-१४३ जन शिलालेख संग्रह भाग १, लेख सं. ४४ एवं भाग २ का लेख संख्या ३०१ जैन शिलालेख संग्रह भाग २, लेख सं. ५६, ६० और ३०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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