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________________ ३१८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ सम्प्रदाय के जन-जन के मुख से भी एक जनश्र ति सुनने को मिलती है कि होय्सल वंशीय राजा बिट्टिग देव विष्णुवर्द्धन की पुत्री पर एक ब्रह्म राक्षस ने अपना प्रभाव जमा लिया था । औषध-भेषज्य तन्त्र-मन्त्र आदि अनेक उपायों के उपरान्त भी ब्रह्म राक्षस ने राजकुमारी का पीछा नहीं छोड़ा । जब रामानुजाचार्य विष्णुवर्द्धन के राज महल में आये और राजपरिवार के अन्य सदस्यों की भांति उस राजकुमारी ने भी जब रामानुजाचार्य के चरणों का स्पर्श किया तो उनके चरणों के स्पर्श मात्र से ब्रह्म राक्षस राजकुमारी को अपने प्रभाव से सदा के लिए मुक्त कर अन्यत्र चला गया। इस जनश्रुति की प्रामाणिकता हेतु जब पुरातत्व सामग्री का अवलोकन करते हैं तो यह जनश्रु ति नितान्त निराधार किंवदन्ती ही सिद्ध होती है । हन्तूरू (हन्तियूर-गोणी बीड्ड परगना) की ध्वस्त जैन वसदि से प्राप्त शक सं. १०५२ (ई. सन् ११३०) के शिला लेख सं. २६३ से सिद्ध होता है कि विष्णुबर्द्धन की पुत्री हरियब्बरसि जीवनभर जैन धर्म की अनन्य उपासिका रही। इस शिलालेख में उल्लेख है कि जिस समय विष्णुवर्द्धन का पुत्र त्रिभुवनमल्ल कुमार वल्लाल देव राज्य कर रहा था, उस समय विष्णुवर्द्धन की पुत्री और कुमार वल्लाल देव की ज्येष्ठ भगिनी तथा गण्ड विमुक्त-सिद्धान्त देव की गृहस्था शिष्या हरियब्बरसि ने हन्तियूर के रत्न जटित उत्तुंग शिखरों वाले चैत्यालय तथा मन्दिर के जीर्णोद्धार, पूजा, ऋषियों एवं वृद्ध महिलामों को प्राहार दान देने आदि कार्यों की व्यवस्था हेतु सभी भांति के करों से विमुक्त भूमि का दान गड विमुक्त सिद्धान्त देव को दिया। विष्णुवर्द्धन का उत्तराधिकारी नरसिंहदेव भी जीवनभर प्रगाढ़ निष्ठा सम्पन्न जैन धर्मावलम्बी और जैन धर्म का संरक्षक रहा, यह भी इतिहास सिद्ध तथ्य है । इन सब प्राचीन अभिलेखों से यह सिद्ध होता है कि होय्सल नरेश विष्णुवर्द्धन और उनके परिवार का प्रत्येक सदस्य जीवन पर्यन्त जैन धर्म का अनुयायी, संवर्द्धक पौर जैन श्रमणों का श्रद्धालु उपासक रहा। यदि विष्णुवर्धन ने वैष्णव धर्म अंगीकार किया होता तो निश्चित रूप से उसके आश्रित उसके परिवार के सदस्यों, मन्त्रियों, सेना नायकों आदि में से कोई न कोई तो उसका अनुसरण करके अवश्यमेव वैष्णव धर्मावलम्बी बना होता। गंग राज चम्पति होयसल नरेश विष्णुवर्धन के महा दण्डनायक सेनापति गंगराज अपने समय के महान योद्धा और परम धर्मनिष्ठ जिन भक्त थे। . जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, पृष्ठ ४५-४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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