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________________ द्रव्य परम्पराओं के सहयोगी राजवंश ] [ ३११ 1 राजा और प्रजाजनों ने भट्टारक शुभचन्द्राचार्य के आदेश का अक्षरशः पालन किया । धरित्री का वह पाताल तुल्य गहन एवं विशाल विवर प्रतिदिन अप्रत्याशित रूप से भरते - भरते प्राय: पूर्णरूपेण भर गया । थोड़ा-सा विजर उस आश्चर्यकारी घटना की स्मृति को बनाये रखने के लिये अवशिष्ट रहा, जो आज भी स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है । इस प्रकार भट्टारक शुभ चन्द्राचार्य के कृपा प्रसाद से कर्णाटक के राजा एवं प्रजा को महा विनाश से मुक्ति मिली। राजा और प्रजा ने सर्व सम्मति से शुभ चन्द्राचार्य को चारु कीर्ति पण्डिताचार्य की उपाधि से अलंकृत कर श्रवण बेल गोल और मेल कोट में इस आशय के शिलानुशासन उटंकित करवाये कि वहां की १२०० पगौड़ा की भूराजस्व से होने वाली आय श्रवण वेलगोल तीर्थ को अर्चा-पूजा आदि के लिये सदा मिलती रहेगी । यदि जैन धर्मावलम्बी किन्हीं परिस्थितियों के कारण गोम्मटेश की पूजा न कर सके तो राज्य की प्रजा के प्रत्येक घर से एक फन्नम चन्दे के रूप में एकत्रित कर पूजा की जायगी । इस विवरण को पढ़ने पर प्रत्येक विज्ञ इतिहास प्रेमी इसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि यह समग्र विवरण विभिन्न काल की, विभिन्न व्यक्तियों से सम्बन्धित fiaदन्तियों का एक संकलन मात्र है । इस सम्पूर्ण विवरण में ऐतिहासिकता का लवलेश भी दृष्टिगोचर नहीं होता । इसमें होय्सल राजाओंों की जो नामावली और क्रम दिया गया है वह भी इतिहास सम्मत नामावली एवं क्रम से नितान्त भिन्न और ऐतिहासिक तथ्यों से परे है। तथ्य यह है कि महासन्त रामानुजाचार्य, उनके विरुद्ध चोलराज द्वारा रचे गये षड्यन्त्र से बचकर ई. सन् १९१६ में होय्सल राज्य में विष्णुवर्द्धन के पास पहुंचे । विष्णुवर्द्धन ने उनकी रक्षा के सब प्रकार के प्रबन्ध कर उन्हें अपने यहां बड़े सम्मान के साथ रखा ।' रामानुजाचार्य ने करर्णाटक और आन्ध्रप्रदेश में एक नवीन धर्मक्रान्ति का सूत्रपात किया था और उन दिनों रामानुजाचार्य के वैष्णव सम्प्रदाय का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा था । विष्णुवर्द्धन के यहां रामानुजाचार्य के ठहरने का १ King Vishnuwardhan's reign was also important because an event which had a profound effect on the whole history of Jainism in Karnataka and Southern India. Thisw as the convertion from Janism into Vaishnavism under the influence of the Great Acharya Ramanuja, who to escape persecution at the hands of a Kola King, had taken refuge in the Hoysal Country. ( Shri) Rice placed this event before A. D. 1116 and attributed the series of extensive conquests to the new religion which king Vishnu had embraced. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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