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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ कारण चारों ओर यह प्रचारित किया गया कि होयसल राजा विष्णुवर्धन ने जैन धर्म का परित्याग कर वैष्णव धर्म अंगीकार कर लिया है । इस पर से अनेक प्रकार कि किंवदन्तियां न केवल दक्षिणापथ में अपितु उत्तरापथ में भी फैल गई और कालान्तर में उन किंवदन्तियों को साहित्य में भी स्थान दे दिया गया । वस्तुतः शिलालेखादि के रूप में आज तक एक भी ऐसा ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ है, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि होयसल राजा विष्णूवर्द्धन ने जैन धर्म का परित्याग कर वैष्णव धर्म स्वीकार कर लिया हो।
इसके विपरीत ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि होयसल राजा विष्णुवर्द्धन, उसकी रानी एवं उसका समस्त राज परिवार, उसके आठों ही सेनापति आदि अपनी-अपनी प्रायु के अवसान काल तक न केवल जैन धर्मानुयायी रहे अपितु जैन धर्म के प्रबल पोषक, प्रचारक एवं प्रसारक भी रहे। जैनाचार्य सुदत्त ने होयसल राजवंश की स्थापना की। जैनाचार्य शान्तिदेव ने इस राजवंश को दक्षिण के एक शक्तिशाली राज्य का रूप दिया तथा समय-समय पर अनेक जैनाचार्यों ने इस राजवंश को उत्तरोत्तर अधिकाधिक शक्तिशाली बनाने में सभी-भांति पूर्ण सक्रिय सहयोग तक दिया और यह राजवंश भी अपने ऊपर अपने धर्म गुरु जैन धर्माचार्यों द्वारा किये गये असीम उपकारों के प्रति पूर्णतः कृतज्ञ रहा । प्राचीन अभिलेख इस बात के साक्षी हैं कि सभी होयसल वंशी राजाओं ने जैन धर्म के उत्कर्ष के लिये अनेक उल्लेखनीय कार्य किये । होयसल राजा विष्णवद्धन भी जीवन भर सम्यकत्व घारी जैन श्रमणोपासक बना रहा। स्वयं रामानुजाचार्य के हस्ताक्षरित एक ताड़पत्रीय अभिलेख' के अनुसार रामानुजाचार्य ई० सन् ११२५ (पिंगल संवत्सर में मकर शुक्ल पुनर्वसु के योग के शुभ दिन) के पास पास कर्णाटक के तिरुनारायणपुर ग्राम (वर्तमान मेलकोटे, जिला-मण्ड्या) से श्री रंगपुर के लिये प्रस्थित हुए। रामानुजाचार्य के मैसूर से चले जाने के पश्चात् भी महाराजा विष्णुवर्द्धन द्वारा जैन धर्म के उत्कर्ष के लिये किये गये कतिपय कार्यों से यही सिद्ध होता है कि वह जीवन पर्यन्त निष्ठावान् जैन धर्मानुयायी एवं पूर्ववत् जैन धर्म का संरक्षक बना रहा।
रामानुजाचार्य के मैसूर से चले जाने के आठ वर्ष पश्चात् शक सं.१०५५ (ई. सन् ११३३) के हलेबीड-बस्ति हल्लि में पार्श्वनाथ वसदि के बाहर की भित्ति में लगे पाषाण पर के अभिलेख में विष्णुवर्द्धन द्वारा किये गये ऐतिहासिक कार्यों का विवरण उट्ट कित किया गया है जिसका सारांश इस प्रकार है :
"होयसल महाराजा विष्णुवर्द्धन के महादण्डनायक गंगराज ने अगणित जीर्ण शीर्ण जिन मन्दिरों का पुनरुद्धार कर गंगवाडि ६६००० को कोपरण के समान
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प्राचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार जयपुर में इस ताड़पत्र की उपलब्ध प्रति ।
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