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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
इस पाप को सहन नहीं कर सकी। बेल्लर ताल्लुक के अड्गुरु के पास धरित्री फट गई। धरती ने अपना मुख खोल कर उस ताल्लुक के अनेक ग्रामों को निगलना प्रारम्भ कर दिया । धरा का वह विशाल गहरा विवर उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया और बेल्लूर ताल्लुक के बहुसंख्यक ग्राम रसातल में धंसने लगे। जब इस महाविनाशकारी खण्ड प्रलय के समाचार विष्णुवर्द्धन के पास पहुंचे तो वह अत्यन्त दुखित हना। उसने वयोवृद्ध विज्ञों, विद्वानों और भू विशेषज्ञों को बुलाकर इस प्रलय का कारण पूछा। सभी विज्ञों ने यही कहा कि जिन मन्दिरों को नष्ट करवाने के महापाप के परिणामस्वरूप ही प्रकृति रुष्ट हो गई है। राजा ने सभी वर्गों, सभी जातियों एवं धर्मों के प्रजाजनों को आमन्त्रित कर शान्ति पाठ करवाये। मान्त्रिकों से मन्त्र जाप और तान्त्रिकों से तन्त्रादि करवाये । किन्तु वे सब उपाय निरर्थक सिद्ध हए। पृथ्वी का वह विवर उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया और प्रकृति का वह ताण्डव मृत्य अहर्निश उग्र से उग्रतर होता गया। जैनेतर सभी धर्मों को मानने वाले प्रजाजनों एवं विज्ञों ने राजा विष्णूवर्द्धन से निवेदन किया कि किसी महान जैनाचार्य की शरण में गये बिना प्रकृति की यह प्रलयंकर लीला शान्त होने वाली नहीं है।
महा विनाश से बचने का अन्य कोई उपाय न देखकर राजा विष्णवर्द्धन न अन्ततोगत्वा किसी जैनाचार्य की शरण में जाने का निश्चय किया। अपने गुरु रामानुजाचार्य और अनेक प्रमुख प्रजाजनों के साथ श्रवण बेलगोल के भट्टारक शुभ चन्द्राचार्य की सेवा में उपस्थित हो विष्णूवर्द्धन ने उनसे बड़े अनुनय-विनयपूर्ण स्वर में प्रार्थना की-"करुणा सिन्धो ! प्राचार्य प्रवर ! इस अनभ्र वज्रपात तुल्य प्राकृतिक प्रकोप से हमारी रक्षा कीजिये। महात्मन् ! हमने सभी प्रकार के उपाय कर लिये हैं। सब ओर से पूर्णतः निराश होकर हम अब आपकी सेवा में उपस्थित हुए हैं । दया कर इस संकट से हमारे धन जन परिजन की रक्षा कीजिये । हम सभी प्रमुखजन अपने सभी विरुद आपके चरणों में समर्पित करते हैं। गोम्मटेश्वर तीर्थ के प्रबन्ध के लिये १२००० पैगोडा प्रतिवर्ष की आय वाले गांव भी दे देंगे। जिनमन्दिरों के छीन लिये गये दानादि पुन: पूर्ववत् प्रचलित कर दिये जायेंगे। जिन मन्दिरों की पूजा में किसी ओर से किसी प्रकार का व्यवधान नहीं होने दिया जायगा और इस अभिप्राय के शिलानुशासन स्थान-स्थान पर उटैंकित करवा दिये जावेंगे।"
__राजा विष्णु वर्द्धन एवं प्रजाजनों द्वारा की गई अनुनय-विनय से द्रवित हो भट्टारक शुभ चन्द्राचार्य ने १०८ श्वेत कूष्माण्ड मंगवाये और इन्हें अभिमन्त्रित एवं तन्त्रों से आपूरित कर राजा को देते हुए कहा - "राजन् ! प्रतिदिन इनमें से एक-एक कूष्माण्ड को उस विवर में प्रक्षिप्त करते रहना । इसके प्रभाव मे वह विवर स्वतः भरता जाएगा।"
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