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द्रव्य परम्परागों के सहयोगी राजवंश ]
[ ३०७ अभिवृद्धि की। विष्णुवर्द्धन ने सम्पूर्ण कर्णाटक प्रदेश को चोल राजवंश के प्राधिपत्य से विमुक्त कर उस पर होयसल राजवंश का आधिपत्य स्थापित किया।
गन्धवारण बसदि के द्वितीय मण्डप के तृतीय स्तम्भ पर उकित शक सं. १०५० के लेख सं. ५३ (१४३) और इसी वसदि के पूर्व की ओर के लेख सं. ५६ (१३२-शक सं. १०४५) और शक सं. १०८१ के लेख संख्या १३८ (३४६) में विष्णुवर्द्धन के शौर्य और प्रताप का वर्णन करते हुए बताया गया है कि इसने युद्धों में अनेक माण्डलिक राजाओं को पराजित कर होयसल राज्य की सीमाओं का बहुत दूर-दूर तक विस्तार किया। चक्रगोट्ट, तलकाडु, नीलगिरि, कोंगु, नंगलि, कोलाल, तेरेयूरु, कोयतूरु, कोंगलिय, उच्चगि, तलेयूरु, पोम्बुर्च, बन्धासुर, चौकवलेय, येन्दिबु, मोरलाग आदि अनेक दुर्भद्य दुर्गों पर अपना अधिकार कर उस समय की बड़ी से बड़ी राजशक्तियों को हतप्रभ-एवं आश्चर्याभिभूत कर दिया।' रणनीति विशारद विष्णुवर्धन ने कोयतूर, कोंग, राय, रायपुर, काञ्चीपुर, वनवास, तलवनपुर, केलपाल एवं अंगरन के राजाओं और चोल सामन्त प्रदियम एवं पल्लव नरसिंह वर्मा को युद्ध में पराजित कर उन राज्यों पर अपनी विजय वैजयन्ती फहराई । उस समय की बड़ी राज शक्तियां विष्णुवर्द्धन का लोहा मानती थीं। तलकाडु, कोंग, नगलि, गंगवाडी, वोलम्बवाडी, मासवाडी, हुलिगेरे, हलसिगे, वनवसे, हानुंगेल, अंग, बंग, कुंभल, मध्यदेश, काञ्ची, विनीत और मदुरा पर अपनी विजय-पताका फहरा उन सब पर शासन किया।
___इतना सब कुछ होते हए भी लेख सं. ३१८ (शक सं. १०६४ ई. सन ११४२) में विष्णवर्द्धन के लिये महा मण्डलेश्वरं शब्द का प्रयोग किया गया है तथा शक सं. १०५० के लेख संख्या ४६७ में ५ इनको चालुक्य राज त्रिभूवन मल्ल का पाद पद्मोपजीवी महा मण्डलेश्वर बताया गया है, इससे अनुमान किया जाता है कि उस समय सम्पूर्ण दक्षिणापथ में अपने साहस-शौर्य और युद्ध कौशल की धाक जमा देने और शक्ति-शाली स्वतन्त्र राजा होते हुए भी होयसल राज विष्णूवर्द्धन ने चालुक्यों के साथ पीढ़ियों से चले आ रहे मधुर सम्बन्ध को उसने विक्रमादित्य षष्ठम के राज्यकाल १०७६-११२६ ई. तक तो यथावत् बनाये रखकर अपने
आपको चालुक्य साम्राज्य का सामन्त कहलवाना ही समुचित समझा । पर चालुक्य राज सोमेश्वर तृतीय (११२६-११३८ ई.) के शासनकाल में उसने
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जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, पृष्ठ ८८-६० और १२३ से १२६ वही-लेख सं. १३८ (३४६) पृष्ठ २७८-२८१ जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेख सं. ३०१, पृष्ठ ४७१-४८२ जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३ पृष्ठ ४२-४५ जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, पृष्ठ ४१३-४१७
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