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________________ ३०६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ ६ - वल्लाल प्रथम । होय्सल राजवंश का पांचवां राजा वल्लाल प्रथम हुआ । अपने पिता एरेयंग की मृत्यु के पश्चात् बल्लाल ई. सन् ११०० में राजसिंहासन पर बैठा और इसने १११० ई. तक राज्य किया । " सिद्धरवसदि के स्तम्भ लेख में उल्लेख है कि राजा बल्लाल अपनी विजय वाहिनी के साथ जिस समय शत्रुओं को परास्त करते हुए विजय अभियान पर अग्र'सर हो रहे थे, उस समय उसको अकस्मात् किसी भीषरण व्याधि ने श्राक्रान्त कर लिया और वे मरणासन्न हो गये, चारुकीर्ति भट्टारक देव ने औषधोपचार से उनकी भीषण व्याधि का निवारण कर बल्लाल को मृत्यु के मुख से बचा उसके जीवन की रक्षा की । वल्लाल प्रथम ने अपनी राजधानी शशपुरी ( शशकपुर वर्तमान अंगडि ) से बेलूर में स्थानान्तरित की । तदनन्तर बल्लाल ने समुद्र ( दोर समुद्र) को होय्सल राज्य की राजधानी बनाया । ७. विष्णुवर्द्धन । बल्लाल के अल्पकालीन शासन के अनन्तर उसका लघु सहोदर विष्णुवर्द्धन ई. सन् १११० में होय्सल राज्य के सिंहासन पर बैठा । इसने, इसकी पटरानी शान्तल देवी ने और इसके गंगराज, बोप्प, पुरिणस, बलदेवण, मरियाने, भरत (देखो लेख सं० ११५), ऐच और विष्णु इन प्राठ जैन सेनापतियों एवं सभी वर्गों के प्रजाजनों ने जैन धर्म की सर्वतोमुखी अभिवृद्धि में और जैन धर्म के वर्चस्व को सर्वोच्च प्रतिष्ठा के पद पर प्रतिष्ठापित करने के लिए जो अपूर्व योगदान दिया, एतद्विषयक प्राचीन अभिलेखों से जो विवरण प्राप्त होता है, उसे पढ़ते समय तीर्थंकर कालीन महाराजा चेटक, श्रेणिक, महारानी चेलना, आदर्श जैन सेनापति वरुरण नाग नटुना, जीर्ण श्रेष्ठि आदि की परमाह्लाद प्रदायिनी स्मृति हृदय पटल पर हठात् उभर आती है । वस्तुत: विष्णुवर्द्धन होय्सल राजवंश के सभी राजाओं में सर्वाधिक प्रतापी, महान् योद्धा, साहसी, शक्तिशाली और लोकप्रिय नरेश था । इसने होय्सल राज्य की अभिवृद्धि एवं प्रतिष्ठा के साथ-साथ जैन धर्म की प्रतिष्ठा में भी उल्लेखनीय १ बी. ए. सेनेटोर ने इसका शासन काल ११०० से १९०६ ही माना है । देखें मिडियेवल जैनिज्म पृष्ठ ७८ * एपिग्राफिका कर्णाटका, भाग २, पृष्ठ ४७८ तच्छिष्यो दक्षिणा चार्यान्वयाम्बर विभाकरः । चारुकीति मुनीन्द्रोऽभूत् पण्डिताचार्य संज्ञकः ॥२८८॥ स एवेत प्रसिद्धोऽभूत्कलिकाल गणेश्वरः । बल्लाल राय तत्प्राणरक्षकः सुप्रसिद्धिभाक् ॥ २८६ ॥ जैनाचार्य परम्परा महिमा, मेकेन्जी का संग्रह, मद्रास ( अप्रकाशित ) जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, लेख संख्या ६७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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