________________
द्रव्य-परम्पराओं के सहयोगी राजवंश ]
[ ३०५
की परख करने में बड़ा ही निपुण और अपने समय का अप्रतिम योद्धा था । इस शिलालेख के उल्लेखानुसार इसने धारा नगरी पर आक्रमण कर मालव राज को पराजित किया, चोलराज की शक्तिशाली सेना को युद्ध में पराजित एवं छिन्न-भिन्न कर ररणांगरण से पलायन करने के लिये विवश कर दिया । चक्र गोट्ट को नष्ट-भ्रष्ट करने के पश्चात् कलिंग राज का समूलोच्छेद कर डाला ।' एरेयंग ने होय्सल राज्य की सीमाओं का उल्लेखनीय विस्तार किया । इसने चालुक्य राज के लिये अनेक युद्ध किये और मालव, कलिंग आदि राज्य शक्तियों को रणभूमि में परास्त किया । "हले बेल्गोल की भग्नावशेष वसदि से प्राप्त शिलालेख सं. ५६८ के उल्लेखानुसार शक सं० १०१५ ( ई. सन् १०९३ ) के आस-पास सम्पूर्ण गंग मण्डल पर होय्सल राजवंश का अधिकार था । इस शिलालेख में इस बात का भी उल्लेख है कि होय्सल राज एरेयंग के धर्मगुरु आचार्य गोपनन्दी पण्डित देव बड़े ही विचक्षरण प्रतिभाशाली महान् वादी, महान् धर्म प्रभावक और लोकप्रिय जैनाचार्य थे । कोण्ड कुन्दान्वय मूल संघ और देशी गण के इन आचार्य गोपनन्दी ने अपने समकालीनअजैन विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर होय्सल राज की सहायता से जैन धर्म को पुनः गंग राजवंश के शासन काल के समान ही सर्वोच्च प्रतिष्ठित पद पर प्रतिष्ठापित किया । एरेयंग ने अपने इन गुरु को कोबप्पु पहाड़ी तीर्थ की वसदियों के पुनरुद्धार मन्दिरों की सेवापूजा, अन्न-वस्त्र दान आदि के लिये राचन हल्ल और बेल्गोल १२ का दान दिया । यह शिलालेख होय्सल महाराजा एरेयंग के राज्यारोहरण के ३० वें वर्ष का है ।
एरेयंग ने अपने समय की प्रमुख पड़ोसी राजशक्तियों पर अपने अद्भुत पौरुष - पराक्रम की युद्धों में ऐसी गहरी छाप जमाई कि इनका शेष शासन काल बड़ी शान्ति के साथ व्यतीत हुआ । एरेयंग का शासन काल ई. सन् १०६३ से ११०० ई. तक रहा । इसके शासन काल में जैन संघ खूब फला-फूला और जैन धर्म की दक्षिण में उल्लेखनीय उन्नति हुई । राजा एरेयंग अपने अनुपम शौर्य के कारण 'त्रिभुवनमल्ल' के विरुद से भी विख्यात हुआ ।
एरेयंग की पटरानी एचल देवी ने क्रमशः वल्लाल, विष्णु और उदयादित्य नामक तीन पुत्रों को जन्म दिया । होय्सल वंश में महाराज एरेयंग ही प्रथम राजा था, जिसने 'वीर गंग' यह उपाधि धारण की, जिसे उत्तरवर्ती प्रायः सभी होय्सल राजाओं ने बड़ी शान के साथ धारण किया ।
१ एपिग्राफिका करर्णाटिका, भाग २, पृष्ठ ५१६ २ वही, पृष्ठ ५४ ८- ५४६, इस लेख में गोपनन्दि को चतुर्मुख देव का शिष्य बताया गया है । गवर्नमेन्ट ओरियन्टल मेनुस्क्रिप्ट्स लायब्ररी, मद्रास यूनिवर्सिटी में प्राप्त "जैनाचार्य परम्परा महिमा" नामक हस्तलिखित ग्रन्थ के २६२ वें श्लोक में एक गोपनन्दि भट्टारक का नाम उल्लिखित है, जो भट्टारक जयकीर्ति के शिष्य थे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org