________________
द्रव्य परम्परात्रों के सहयोगी राजवंश ]
[ ३०३
राचमल पेविडि भी उपलब्ध होता है।' यद्यपि अनेक इतिहास विदों ने पोयसल राजाओं की नामावलि में इस वंश के तीसरे नरेश नप काम के नाम का उल्लेख नहीं किण है किन्तु असिकेरे के लेख सं० १४१ और १५७ में इस वंश के तीसरे नरेश विनयादित्य के पिता का नाम नपकाम उल्लिखित है तथा मजराबाद के लेख सं. ४३, अर्कल्गुद के लेख सं. ७६ और मूद्गेरे के लेख सं. १६ में शशकपुर पर नप काम के राज्य के उल्लेख आदि पुरातात्विक साक्ष्य से सिद्ध होता है कि सल के पश्चात् और विनयादित्य से पहले शशकपुर के होयसल राज्य पर नृप काम का शासन रहा।
इन ऐतिहासिक महत्व के शिलालेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सल के पश्चात और विनयादित्य से पूर्व पोयसल राजवंश में नप काम अथवा काम नायक दूसरा राजा हुमा । डा. के. ए. नीलकण्ठ शास्त्री ने पोयसल वंश के नृप काम नामक राजा का राज्य काल ई. सन १०२२ से १०४७ तक माना है।
४. विनयादित्य (द्वितीय)-नप काम के पश्चात् उसका पुत्र विनयादित्य होयलस राज्य का तीसरा नरेश हुआ। विनयादित्य इस वंश का बड़ा प्रतापी राजा था। यह चालुक्य राज विक्रमादित्य-छठे का वश वर्ती राजा था। इसके गुरु का नाम प्राचार्य शान्ति देव मुनि था । पार्श्वनाथ वसति के एक स्तम्भ लेख (शक सं० । १०५० तद्नुसार ई. सन् ११२८) के श्लोक सं० ५१ के अनुसार मुनि शान्ति देव के कृपा प्रसाद से विनयादित्य लक्ष्मी का स्वामी बना।' यह राजा परम जिन भक्त था। इसकी जिन भक्ति और इसके द्वारा किये गये धामिक कार्यों की प्रशंसा करते हुए गन्धवारण वसति के द्वितीय मण्डप के तृतीय स्तम्भ पर उट्ट कित शक सं० १०५० (ई. सन् ११२८) के लेख में बताया गया है कि राजा विनयादित्य ने बहुत बड़ी संख्या में तालाबों एवं जिन मन्दिरों का निर्माण करवाया। विशाल जिन मन्दिरों के निर्माण हेतु ईंटों के लिये जिस-जिस स्थान पर भूमि को खोदा गया, वहां विशाल सरोवर बन गये और जिनेन्द्र प्रभु के मन्दिरों के निर्माणार्थ जिन पर्वतों से पत्थर निकाले गये वे पर्वत प्राधे हो गये। जिन मागों से ईंट, चूना और पत्थरों
रोबर्ट सेवल द्वारा लिखित हिस्टोरिकल इन्स्क्रिप्शन्स माफ सदर्न इण्डिया, पृ. ३५१ एपिग्राफिका कर्णाटिका जिल्द ५
दक्षिण भारत का इतिहास, डॉ. के. ए. नीलकण्ठ शास्त्री, हिन्दी अनुवाद डॉ. वीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ १६१. एपिग्राफिका कर्णाटिका Vol. II (२nd एडीशन) पृ. ५३ पंक्ति, १४६-१४८ जैन शिलालेख मग्रह, भाग १ लेख मं. ५८ (६७), पृष्ठ ११०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org