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________________ ३०० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ नहष, नहुष से ययाति और ययाति से महाराज यदु उत्पन्न हुए । महाराजा यदु की राजवंश परम्परा में अनेक राजाओं के पश्चात् पोयसल राज्य संस्थापक यादव सल का जन्म हुआ । सल की राज्य श्री की अभिवृद्धि के संकल्प के साथ एक जैनाचार्य ने मन्त्रों द्वारा शशकपूर की पद्मावती देवी को प्रसन्न करने के लिए साधना प्रारम्भ की। एक दिन वे जैनाचार्य जब साधना में निरत थे और यादववंशी सल उनके पास बैठा हुआ था, उस समय एक चीते ने जैनाचार्य की साधना को भंग करने हेतु उन पर आक्रमण किया। उस समय मुनिराज ने अपने चामर पिच्छ की मूठ सल को थमाते हुए उसे कहा-"पोय सल।" अर्थात् - सल! इसे मारो। सल ने तत्काल उस चीते को मार दिया। उसी समय से सल का नाम पोय्सल और उसके परम्परागत यादव राजवंश का नाम "पोय्सल" लोक प्रसिद्ध हो गया। सल ने अपनी राज्यपताका पर चीते का चिह्न लगाया ।' उसी समय वहां अंगडि नामक स्थान के चारों ओर दूर दूर तक बसन्त ऋतु हो गई अथवा वसन्त ऋतु का आगमन हो गया। पोयसल ने इसे यक्षी (पद्मावती देवी) का कृपा प्रसाद समझ कर उसका बासन्ति देवी के नाम से पूजन किया। यही पद्मावती देवी सल के समय से ही पोयसल राजवंश की कुल देवी के रूप में विख्यात हुई। वर्तमान काल में भी वहां वासन्ति देवी का मन्दिर विद्यमान है । हसन ताल्लुके के कोनावर नामक ग्राम के केशव मन्दिर में ई० सन् ११२३ का एक शिलालेख उपलब्ध हुआ है। उस शिलालेख में इस घटना का विवरण निम्नलिखित रूप में उपलब्ध है "सल नामक एक यदुवंशी राजा सह्याद्रि की ढाल पहाड़ियों के मार्ग से निकल रहा था उस समय उसने देखा कि एक सिंह एक साधनारत जैन मुनि की ओर झपट रहा है । मुनि ने सल के शौर्य की परीक्षा हेतु कहा :-"सल ! इसे मारो।" सल ने तत्काल कटार के एक ही वार से सिंह को मार डाला। मुनि ने प्रसन्न हो उसे पोयसल नाम देने के साथ-साथ अपनी पताका पर सिंह का चिह्न लगाने का परामर्श भी दिया।" इस प्रकार कर्णाटक प्रान्त के पश्चिमी घाट की पहाड़ियों के प्रदेश में कादुर जिले के मुदेगेरे ताल्लुक में जो अंगडि नामक स्थान है, वही जैन धर्म के शक्तिशाली संरक्षक, परम जिन भक्त एवं निष्ठावान जैन धर्मानुयायी पोयसल राजवंश का उद्भव स्थान है । श्री लुइस राइस के अभिमतानुसार प्राचीन काल में यह अंगडि नामक स्थान सोसे दूर अथवा शशकपुर के नाम से विख्यात था। यहां यह उल्लेखनीय है ' (क) Ibid Hn. ११६ ई० सन् ११२३ पृष्ठ ३३, Ibid (ii) १३२, पृष्ठ ५८, Ibid VBL १७१ ई० सन् १९६० पृष्ठ १०० पर स्पष्ट उल्लेख है -- सल ! इसे मारो ! सल ने शेर को एक ही बार में सदा के लिये सुला दिया, दूसरी बार झपटने का अवसर ही नहीं दिया। (ख) लेख संख्या ५६ में उल्लेख है कि सल ने अपने मुकुट पर सिंह का चिह्न धारण किया । देखिये-जैन शिलालेख संग्रह भाग १ पृष्ठ १२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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