________________
द्रव्य परम्पराओं के सहयोगी राजवंश ]
[ २६६
मनीन्द्र ने मन ही मन विचार किया कि इस क्षत्रिय किशोर में उनकी पाशात्रों के अनुरूप सभी शुभ लक्षण विद्यमान हैं। इस प्रकार विचार कर वे पुन: पद्मावती देवी की साधना में लीन हो गये और क्षत्रिय राज किशोर उनके मुखार विन्द की ओर अपलक निहारता हुआ उनके समक्ष बैठा रहा । कुछ ही क्षणों के अनन्तर सिंह की गर्जना से वह स्थान गुंजरित हो उठा । ध्यान के पारण के साथ ज्यों ही प्राचार्य सुदत्त ने पलकें खोली तो देखा कि एक कराल केसरी सिंह उन दोनों की ओर झपटा चला आ रहा है। अपने स्थान पर निर्भय अडोल बैठे क्षत्रिय कुमार को सम्बोधित करते हुए मुनीन्द्र सुदत्त ने उस प्रदेश की भाषा में कहा-- "पोय स ल।" अर्थात् “सल इसे मारो।" |
प्राचार्य देव की आज्ञा को शिरोधार्य कर राज किशोर सल ने सुदत्ताचार्य की ओर छलांग मारते हुए शेर को एक ही बार में ढेर कर सदा के लिये धराशायी कर दिया।
यदुवीर सल के अनुपम शौर्य और अद्भुत साहस को देख कर आचार्य सुदत्त की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। उन्हें विश्वास हो गया कि यह पराक्रमी पुरुष नवीन राज्य की स्थापना करने में और राज्य का स्वामी होने के पश्चात् जैन संघ को समुचित संरक्षण देने में भी सर्वथा सक्षम है । प्राचार्य सुदत्त ने उसी समय से उस यादव किशोर को "पोय सल" के नाम से सम्बोधित करना प्रारम्भ कर दिया।' इस कारण यह यादव राज़ वंश पोयसल और कालान्तर में होयसल नाम से विख्यात हुआ।
आचार्य सुदत्त और जैन संघ की सहायता से पोय सल ने चालुक्यों के पतन के समय उनके राज्य के दक्षिणी भाग पर अधिकार कर ई० सन् १००४ के पासपास पोयसल (होयसल) राज्य की स्थापना की।
जैन शिलालेख संग्रह भाग १ के लेख सं० ५६, पृष्ठ सं० १२३-१२६, लेख संख्या ४६४, ४६५ (पृ. सं. ४०२-४११) और जैन शिला लेख संग्रह भाग २ के लेख सं० ३०१ (पृष्ठ सं० ४७१ से ४८२) में भी पोयसल राजवंश के अभ्युदय के सम्बन्ध में लेख संख्या ४५७ से प्रायः मिलता-जुलता वर्णन किया गया है किन्तु इनमें सुदत्त मुनि का नामोल्लेख न कर उनके स्थान पर केवल "किसी मुनि" का ही उल्लेख है। इन लेखों में पोय्सल अथवा होयसल वंश की उत्पत्ति मूलतः ब्रह्मा से बताते हुए कहा गया है कि ब्रह्मा से अत्रि, अत्रि से सोम, उनसे पुरुरवा उनसे आयु, आयु से
जैन शिलालेख संग्रह भाग ३, लेख सं० ४५७ पृष्ठ ३०१-३०६ । The Hoyasalas came to power on the subversion of the Gangas by the Cholas, in 1004 A. D.-Studies in south Indian jainism by M. S. Ramaswami Ayyangar & B. Sheshgiri Rao, Chapter VII
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org