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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
होयसल राजवश ई० सन् ९७२ में चालुक्य राज तेल द्वारा राष्ट्रकूट वंश के २० वें राजा कर्क राज द्वितीय (अपर नाम अमोघ वर्ष, वल्लभ नरेन्द्र, नृपतुंग) के पराजित होने और राष्ट्रकूट राजाओं की राजधानी मान्य खेट (मलखेड़) के पतन के पश्चात् जैन संघ कुछ समय तक राज्याश्रय से वंचित रहा । वह समय वस्तुतः धार्मिक प्रतिद्वन्द्विता का युग था। सुदीर्घावधि से राज्याश्रय प्राप्त जैन संघ जब ईसा की दशवीं शताब्दि के अन्तिम चतुर्थ चरण में राज्याश्रय विहीन हो गया तो शैवों एवं वैष्णव धर्मावलम्बियों ने राज्याश्रय प्राप्त कर जैन संघ के प्रचार-प्रसार में अनेक प्रकार के अवरोध उपस्थित करने का क्रम प्रारम्भ कर दिया। अन्य धर्मावलम्बियों द्वारा जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में उपस्थित किये गये अवरोधों के परिणामस्वरूप दक्षिण का प्राचीन और सबल जैन संघ शनैः शनैः क्षीण होने लगा।
जैन धर्म के इस प्रकार के ह्रासोन्मुखी प्रवाह को पुनः पूर्ववत् विकासोन्मुख कैसे बनाया जाय, क्या-क्या उपाय किये जायं-यह एक ज्वलन्त समस्या जैन संघाग्रणियों के समक्ष उपस्थित हुई। मनीषी प्राचार्यों ने इस समस्या के समाधान के लिये चिन्तन किया। तत्कालीन परिस्थितियों के सम्बन्ध में विचार मन्थन करतेकरते इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि कटुतापूर्ण धार्मिक प्रतिद्वन्द्विता एवं धार्मिक असहिष्णूता के युग में दृढ़ जैन धर्मावलम्बी किसी सशक्त राजा का राज्याश्रय प्राप्त करके ही इस प्रकार के संक्रान्ति काल में अन्य धर्मावलम्बियों द्वारा राज्याश्रय के बल पर किये जाने वाले जैन धर्म के ह्रास को रोक सकते हैं।
जैन धर्म के अभ्युत्थान के उत्कट आकांक्षी अनेक मनीषी उस दिन की प्रतीक्षा करने लगे जब कि कोई पुरुषसिंह जैन संघ के उत्कर्ष की आन्तरिक उत्कट आकांक्षा लिये अभिनव राज्य शक्ति के साथ उभर कर आगे आवे ।
परोपकारक व्रती मनस्वी महात्माओं की आन्तरिक अभिलाषाएं अधिक समय तक अपूर्ण नहीं रहती, वे लम्बी प्रतीक्षा न करवा स्वल्पावधि में ही पुष्पितपल्लवित हो वृहदाकार धारण कर विराट स्वरूपा हो जाती हैं ।
राज्याश्रय से वंचित जैन संघ को संरक्षण प्रदान करने वाला कोई उदीयमान वर शार्दूल आगे आये और एक सुदृढ़ प्रबल राज शक्ति के रूप में उदित हो जिन धर्म को राज्याश्रय प्रदान करे-इस प्रकार की उत्कट अभिलाषा को अन्तर्मन में संजोये सुदत्त नामक एक जैनाचार्य विकट वन्य प्रदेश में अङ्गड़ि नामक स्थान पर साधना विरत थे । उस समय एक यादव वंशी किशोर वय का राजकुमार उस स्थान पर आया। उसने भक्ति सहित प्राचार्य सुदत्त को वन्दन किया और उनके सम्मुख बैठ गया। प्राचार्य देव के इंगित पर उसने अपना नाम सल बताया ।
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