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द्रव्य परम्पराओं के सहयोगी राजवंश ]
[ २६३ जैन धर्मानुयायी एवं परम जिनभक्त था ।' अमोघवर्ष के धर्म गुरु संघ के भट्टारक जिन सेनाचार्य थे जिन्होंने शक सं. ७५६ (वि. सं. ८६२) ई. सन् ८३७ में कषाय प्राभृत पर जय धवला नामक विशाल टीका ग्रंथ की रचना की। इन्होंने आदि पुराण और पाश्र्वाभ्युदय नामक काव्य ग्रंथ की भी रचना की। उत्तर पुराण में गुणभद्राचार्य के उल्लेखानुसार राजा अमोघवर्ष अपने गुरु जिन सेनाचार्य को प्रणाम कर अपने आपको धन्य मानता था। महाराजाधिराज ग्रमोघवर्ष परम जिन भक्त होने के साथ एक समर्थ कवि और उद्भट विद्वान भी था। उसने रत्नमालिका , (प्रश्नोत्तर मालिका) और 'कविराजमार्गालंकार' नामक दो ग्रन्थों की रचना की। प्रश्नोत्तरमालिका का उस समय तिब्बती भाषा में अनुवाद किया गया था। यह दक्षिण से उत्तर तक लोकप्रिय रही। रत्नमालिका में स्वयं अमोघवर्ष ने निम्नलिखित पद्य द्वारा संसार से स्वयं के विरक्त होने और राजसिंहासन के त्याग का उल्लेख किया है : ...
विवेकात्त्यक्त राज्येन, राज्ञेयं रत्नमालिका।
रचितामोघवर्षेण, सुधियां सदलंकृतिः ।। इस उल्लेख से अनुमान किया जाता है कि अमोघवर्ष ने राज्य-पाट को स्वेच्छापूर्वक त्यागकर मुनिधर्म स्वीकार किया हो। इस राजा के शासनकाल में दक्षिणापथ के सुविशाल क्षेत्र में जैन धर्म की उल्लेखनीय उन्नति हुई ।
१२. कृष्ण द्वितीय-अकालवर्ष-कन्नर-कन्दरवल्लभ-कृष्णवल्लभ-शुभतुगपरमेश्वर-परम भट्टारक-पृथ्वीवल्लभ-ई. सन् ८७५-६१२ त्रिपुरा अथवा तेवार के चेदिवंश की कलचरी शाखा के राजा कोक्कल की राजकुमारी से इसका विवाह हुआ । पूर्वी चालुक्यों के साथ इसका युद्ध चलता रहा । लेख संख्या १४० के अनुसार नागर खण्ड सत्तर के सामन्त सत्तरम नागार्जुन की मृत्यु हो जाने पर इस राजा ने उसकी पत्नी जक्कियब्बे को पावनबर और नागर खण्ड शत्तर का राज्य प्रदान किया । लगभग ६ वर्ष तक जक्कियब्वे वहां शामन करती रही। उमने जक्कवि के जिन मन्दिर को ७ मत्तल चावल की भूमि प्रदान की और अन्त में ई. सन् ६१८ में उमने श्रवण बेलगोल में जाकर सल्लेग्वनापूर्वक समाधि मग्गा का वरण किया ।
१३. गोविन्द चतुर्थ-जगत्तु ग-प्रभूत वर्ष (ई. सन् ६१२-६१३) । इसका पहला विवाह अपने मामा रग विग्रह (कोक्कल चेदिराज) की पुत्री लक्ष्मी से और दूसरा विवाह शंकर गगण (संभवत: रगण विग्रह के छोटे भाई ) की पुत्री गोविन्दम्म। मे हुवा।
Amoghavarsha I was the Greatest patron of the Digambara Jains and there is no reason to doubt that he. Studies in South Indian Jainism by Ms Ramaswami & B Rao chapter VII JBBRAS XII Page so
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