________________
द्रव्य परम्परानों के सहयोगी राजवंश ]
[ २६१ ___ --- ध्र व-धोर-धारा वर्ष-निरुपम-कलिवल्लभ-इद्धतेजस । अपने बड़े भाई गोविन्द द्वितीय को सिंहासनच्युत कर राज-सिंहासन पर आसीन होने के पश्चात् इसने ई० सन् ७६४ तक शासन किया। यह बड़ा ही साहसी एवं युद्ध शौण्डीर राजा था। उपरिवरिणत लेख सं० १२३ में इसके विजय अभियानों के उल्लेखों में बताया गया है कि ये अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में कभी किसी से भी परास्त नहीं हुए। सदा अविजेय गंगो को पराजित किया और पल्लवों, गोड़ों एवं वत्सराज को भी रणांगण में हतप्रभ कर परास्त किया और इसने अपने बड़े पुत्र कम्ब को गंग प्रदेश दिया और छोटे पुत्र गोविन्द को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इसके शासन काल में राष्ट्रकूट राज्य की उल्लेखनीय अभिवृद्धि हई।
१०-गोविन्द तृतीय-प्रभूतवर्ष-जगत्तुग-बल्लभ नरेन्द्र-श्री वल्लभ-पृथ्वीवल्लभ-अतिशय धवल-कीर्तिनारायण। इसका शासन काल ई० सन् ७६४. से ८१४ तक रहा । यह राष्ट्रकूट वंश के अपने सभी पूर्वज राजारों से बड़ा शत्तिसालों एवं अधिक प्रतापी राजा सिद्ध हुआ। इसने राज-सिंहासन पर प्रारूढ़ होते ही दिग्विजय का अभियान प्रारम्भ किया। इस विजय अभियान में उसने अपने समय के बारह शक्तिशाली एवं विख्यात राजारों से संघर्ष कर उनकी सैन्य शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया। केरल, मालवा, गुजरात, चित्रकूट (बुन्देल खण्ड) के विन्द्याद्रि, पल्लव, शान्तर एवं वेंगी के चालुक्य राज आदि राजाओं को युद्ध में परास्त कर अपने राष्ट्रकूट वंश के राज्य की सीमाओं का विन्द्य से लेकर काञ्ची तथा मालवा से लेकर गुजरात तक विस्तार कर लिया। गुजरात के अन्तर्गत लाया हुप्रा नव विजित लाट प्रदेश -- इसने अपने लघु भ्राता इन्द्रराज को प्रदान कर उसे वहां का शासक बना दिया।
गोविन्द तृतीय ने अपने पिता ध्र व द्वारा अनेक वर्षों से बन्दी बनाये गये गंगवंश के सत्रहवें राजा शिवमार को मुक्त कर दिया था, किन्तु उसकी राष्ट्रकूट राज्य विरोधी गतिविधियों से अप्रसन्न हो उसने उसे पुनः बन्दी बना लिया। कालान्तर में उसने पल्लव राजा नन्दिवर्मा के स्थान पर गंगराजा शिवमार को पुनः राज्य सिंहासन पर प्रारूढ़ कर दिया ।
राष्ट्रकूट वंशी इस राजा ने शक सं० ७३५ (वि० सं० ८१३) में अपने गंग वंशीय सामन्त चाकिराज की प्रार्थना पर जाल मंगल नामक एक गांव यापनीय संघान्तर्गत नन्दिसंघ के पुन्नागवृक्षमूलगण के यापनीय प्राचार्य अर्क कीति को दान स्वरूप प्रदान किया। अर्ककीति ने इनके सामन्त विभवादित्य को शनि की पीड़ा से उन्मुक्त किया था।'
१ जैन शिलालेख संग्रह भाग २ लेख संख्या १२४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org