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________________ २६० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ के उद्भट विद्वान् महावादी दिगम्बराचार्य अकलंक इस राजा के सम सामयिक आचार्य थे । इस राजा की प्रशंसा में प्राचार्य अकलंक का निम्नलिखित श्लोक इस शिलालेख में उट्ट कित है : राजन् साहसतुग सन्ति बहवः श्वेतातपत्रा नपा: किन्तु त्वत्सदृशा रणे विजयिनस्त्यागोन्नता दुर्लभाः । त्वद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादीश्वरा वाग्मिनो, नाना शास्त्रविचारचातुरधियः, काले कलौ मद्विधा ।।२१।।' महाराज दन्ति दुर्ग परम जिन भक्त होने के साथ-साथ बड़ा ही शक्तिशाली एवं लोकप्रिय नरेश था। इसकी अजेय एवं दुर्द्धर्ष हस्ति सेना ने रेवा अथवा नर्मदा महानदी के तटवर्ती सुदूरस्थ प्रदेशों पर विजय प्राप्त की। चालुक्य राजा कीर्ति वर्मा की जिस विजयिनी सेना ने चोलराज, पांड्यराज वज्रट और श्री हर्ष की सेनाओं को पराजित किया था, उस शक्तिशाली कर्णाटकी सेना को भी दन्ति दुर्ग ने रणांगण में छिन्न-भिन्न कर उस पर पूर्ण विजय प्राप्त की। ७-कृष्ण प्रथम- ई० सन् ७५३ से ७७८ ..- यह राष्ट्रकूट वंश के पांचवें राजा इन्द्र का छोटा भाई था। अकाल वर्ष, बल्लभ, शुभतुङ्ग और कन्नर ये उसके उपाधि सूचक अपर नाम भी थे। इसने चालुक्य राज्य के अन्तर्गत शेष रहे और भी अनेक क्षेत्रों पर अपनी विजय पताका फहरा कर सम्पूर्ण चालुक्य राज्य को अपने अधीन कर लिया। लेख सं. १२३ के अनुसार कृष्ण प्रथम ने चालुक्य राजवंश से लक्ष्मी को छीन लिया। इसने एलपुर में एक बड़ा ही सुन्दर शिव मन्दिर बनवाया । गोविन्द और ध्र व अपरनाम धोर नामक इसके दो पुत्र थे। ८-गोविन्द द्वितीय-प्रभूत वर्ष-वल्लभ-यह ई. सन् ७७८ में राष्ट्रकूट राज-सिंहासन पर बैठा। इसका शासन थोड़े ही वर्षों तक रहा और इसका लघु भ्राता ध्रुव इसे सिंहासनच्युत करके स्वयं राजा बन गया। शक सं० ७०५ ई. सन् ७८३ में तो सुनिश्चित रूप से इसका शासन था। यह प्राचार्य जिनसेन द्वारा अपने ग्रन्थ 'हरिवंश पुराण' में किये गये इस उल्लेख से सिद्ध होता है कि उन्होंने शक सं० ७०५ में राष्ट्रकूट वंशीय राजा गोविन्द द्वितीय के राज्यकाल में इस ग्रंथ की रचना की । इसने अपने कुछ वर्षों के शासन काल में भी राष्ट्रकूट राज्य का उल्लेखनीय विस्तार किया। इसके सोरब ताल्लुक से ई० सन् ७६७ से ई० सन् ८०० की बीच की अवधि के ५ शिलालेख प्राप्त हुए हैं । इससे अनुमान किया जाता है कि इसके छोटे भाई ने, इसे राष्ट्रकूट राज्य के सिंहासन से च्युत करने के उपरान्त भी सोरब क्षेत्र के स्वतन्त्र राजा के रूप में इसे रखा हो। १ जैन शिला लेख संग्रह, भाग १, लेख सं. ५४ पृष्ठ १०४ २ जैन शिला लेख संग्रह भाग २, पृष्ठ १२५ श्लोक सं. ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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