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________________ २८६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग --- ३ ईसा की दशवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में इस शाखा ने पुनः शक्ति-संचय कर अपनी स्थिति को स्वतन्त्र शासक के रूप में सुधारा ।' इस प्रकार आज तक उपलब्ध हुए प्राचीन शिलालेखों एवं ताम्र पत्रादि से. यह तथ्य प्रकाश में आता है कि कदम्बवंशी राजाओं, उनके मंत्रियों, सेनापतियों एवं उनके परिवार के सदस्यों की जैन धर्म के प्रति प्रगाढ़ सहानुभूति, अटूट आस्था अथवा श्रद्धा-भक्ति रही। यदि इस विषय में और शोध की जाय तो अनेक महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में श्रा सकते हैं, क्योंकि, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, कदम्ब राजवंश का राज्य दक्षिणापथ के विशाल भू-भाग पर ईसा की प्रथम शताब्दी एवं इससे भी पूर्वकाल में रहा है । वे सब पूर्वकालीन कदम्बवंशी राजा जैन थे, ऐसा उच्च कोटि के कतिपय इतिहासविदों का अभिमत है । मृगेश वर्मा, हरि वर्मा उनके पितृव्य शिवरथ, युवराज देववर्मा, रविवर्मा, महारानी मालल देवी आदि ने जैन धर्म के प्रति अनन्य निष्ठा -श्रद्धा-भक्ति प्रकट की, वह उनके पूर्व पुरुषों के जैन धर्म के प्रति श्रद्धा-भक्ति के परम्परागत पुरातन संस्कारों का ही प्रतिफल हो सकता है । इस प्रकार कदम्ब राजवंश ने जैन धर्म की प्रभ्युन्नति के लिये उल्लेखनीय एवं अनमोल योगदान दिया और इस राजवंश के समग्र शासनकाल में जैन धर्म सदा पल्लवित तथा पुष्पित होता रहा । यद्यपि वनवासी शाखा के कदम्बवंशी राजाश्रों ने अपना वंश परिचयमानव्य गोत्र, हारिति पुत्र, स्वामी महासेन ( षण्मुख कार्तिकेय) पादानुध्यात, आश्रित जनम्बानां के रूप में दिया गया है किन्तु प्रारम्भ से अन्त तक इस राजवंश के राजा का अद्भुत एवं विशिष्ट झुकाव जैन धर्म के प्रति ही रहा है । इन राजाओं के जितने राज्याश्रित कवि थे, वे जैन थे । इनके मन्त्रीगरण और सामन्त भी जैन थे । कदम्बवंशी राजाओं द्वारा जिन पवित्र स्थानों के नाम रखे गये, वे जैनों के पवित्र क्षेत्रों के रूप में अद्यावधि माने जाते हैं । कदम्बवंशी राजाओं ने जो दान दिये वे प्रायः सभी जैनाचार्यों एवं जैन संघों को दिये, यह तथ्य इस राजवंश के राजाओं के दानपत्रों-ताम्रपत्रों, शिलालेखों प्रादि से प्रकाश में प्राया है । गोप्रा प्रदेश में कदम्ब राजवंश की शाखा का सुदीर्घ काल तक राज्य रहा । उन्होंने जैन साहित्य में अभिवृद्धि कर जैन वांग्मय को समृद्ध किया । 3 , The Classical Age, Chap, XIII p. 273 २ Similarly in the Saka Taluq of the Ganjam Dist. there is a village Called Jaisingh, possibly named after Jaya Varma the early Kadamba King of 2nd Centuary A. D. (1) or a Kosala Jayaditya preserved in the traditions of the present day Andhra Kshatriyas. —Epigraphia Jainica (chapter II) in Studies in South Indian Jainism-गोश्रा के कदम्ब वंशी राजाओं के ताम्रपत्र । 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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