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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
गौरवर्ष
ई. सन् १०१८ कुदम रस
, १०२६ कीर्ति वर्मा अथवा कीति देव
, १०७०-११००. इस राजा की महारानी मलल देवी की जैन धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्ति थी। मलल देवी ने जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है ई० सन् १०७५ में कुप्पतूरू जिला सोरब में पार्श्वनाथ चैत्यालय को सुसंस्कारित करवा वनवासी के १८ प्रमुख मन्दिरों के पुरोहितों एवं विख्यात मधुकेश्वर नाम के विष्णू भक्त पुरोहित को आमन्त्रित किया। महारानी ने विपुल दान देकर उन सभी पुरोहितों से भगवान् पार्श्वनाथ का विधिवत् अर्चन पूजन करवाया । तदनन्तर महारानी मललदेवी ने यापनीय संघ के प्राचार्य पद्मनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती के परामर्शानुसार वहां बहुत बड़ी संख्या में उपस्थित विद्वान् ब्राह्मणों से उस पार्श्व जिन चैत्यालय का नाम 'ब्रह्म जिनालय' रखवा कर उस ब्रह्म जिनालय की दैनिक पूजा अर्चा एवं जैन मुनियों के आहार की व्यवस्था के लिये विष्णु भक्त मधुकेश्वर पुरोहित से एवं कदम्बराज कीर्ति वर्मा से अनेक विशाल कृषि भूखण्ड यापनीय प्राचार्य पद्मनन्दि को दान में दिलवाये । ऐतिहासिक दृष्टि से यह शिलालेख बड़ा ही महत्वपूर्ण है । यापनीय संघ के प्राचार्य एवं मुनि अन्य धर्मावलम्बियों एवं जनमत को जैन धर्म के सन्निकट सम्पर्क में रखने में एवं जैन धर्म के प्रचार-प्रसार एवं वर्चस्व के अभिवर्द्धन में कितने सजग और प्रयत्नशील रहते थे, इस दिशा में यह लेख गहरा प्रकाश डालता है। तैलपदेव
ई. सन ११०० से ११०३ कीर्तिदेव (द्वितीय)
११०३ से १११६ तैलपदेव (द्वितीय)
११२६ तक मल्लिदेव
११४३ तक कावदेव
११४७ तक कीतिदेव (तृतीय)
११५१ से ११७८ तक सोयीदेव (इसी वंश का कीतिदेव का ही समकालीन अन्य राजा)
११६० से ११७१ तेलहदेव
११७८ कोन्डेरस
११८७ काव अथवा कामदेव
११८८ से १२१६ मल्लिदेव (द्वितीय)
१२१६ से १२३१ सोयीदेव (द्वितीय)
१२३७ कावदेव (तृतीय)
१२३८ से १३०७२ १ जैन शिला लेख संग्रह, भाग २, लेख सं० २०६, पृष्ठ २६६-२७१. २ इपीग्राफिका कर्णाटिका वाल्यूम ८, पेज २-३
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