SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ विक्रमादित्य के राजकुमार के साथ और अपनी दूसरी पुत्री का विवाह गंग राज वंश के पांचवें महाराजा तडंगाल (माधव तृतीय) के साथ किया ।' जैन धर्म के प्रति काकुत्स्थ वर्मा की कैसी प्रगाढ़ श्रद्धा थी यह उपरि वर्णित लेख सं. ६६ से सहज ही स्पष्टतः प्रकट हो जाता है । काकुत्स्थ वर्मा ने जन कल्याण के अनेक उल्लेखनीय कार्य किये और तालगुण्ड में एक विशाल जलाशय का निर्माण करवाया । अपने समकालीन शक्तिशाली राजवंशों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपने राज्य को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ शान्ति की स्थापना में भी इसने बड़ा ही महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसके दो पुत्र थे शान्ति वर्मन और कृष्ण वर्मन । ६-शान्ति वर्मन् (ई. सन् ४५० से ४७५) काकुत्स्थ वर्मन् की मृत्यु हो जाने पर उसका बड़ा पुत्र शान्ति वर्मन् बनवासी के राज-सिंहासन पर बैठा। दूसरी शाखा के राजा-शान्ति वर्मन् के छोटे भाई कृष्ण वर्मन् ने अपने भाई से विद्रोह कर कदम्ब राज्य के दक्षिणी भाग पर अधिकार किया और त्रिपर्वत (सम्भवतःहलेविद) में अपनी राजधानी स्थापित की। उसने अपने आपको स्वतन्त्र राजा घोषित किया और इस प्रकार वह कदम्ब राजवंश की दूसरी शाखा का संस्थापक हुना। कृष्ण वर्मा की बहिन का विवाह गंग वंश के महाराजा तडंगल माधव के साथ हुआ था यह ऊपर बताया जा चुका है। इस कारण सम्भवतः गंगराज वंश का इसे प्रश्रय मिला हो ऐसा अनुमान किया जा सकता है। इसने अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाया और अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया किन्तु पल्लवराज के हाथों बुरी तरह पराजित हुआ। पल्लवों ने कृष्ण वर्मन के पुत्र विष्णु बर्मन को त्रिपर्वत के राज-सिंहासन पर बैठाया। इससे ज्ञात होता है कि विष्णू वर्मन् पल्लवों का अधीनस्थ राजा रहा। ७-मृगेश वर्मन् (ई. सन् ४७५ से ४६०) शान्ति वर्मन् के पश्चात् उसका पुत्र मृगेश वर्मन् बनवासी में कदम्ब राजवंश के सिंहासन पर बैठा । यह बड़ा प्रतापी और धर्मात्मा राजा था। इसने पल्लवों और पश्चिमी गंगों को युद्ध में पराजित किया। मृगेश वर्मा के जिन दान पत्रों का ऊपर विवरण प्रस्तुत किया जा चुका है, वे इस बात के साक्षी हैं कि इस राजा की जैन धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्ति थी। जैन धर्म शताब्दियों से दक्षिण में समुन्नत दशा में रहा था। मृगेश वर्मन् ने अपने शासन काल में जैन धर्म के उस समय के सभी शक्तिशाली श्वेताम्बर महा श्रमण संघ, निर्ग्रन्थ महा श्रमण संघ यापनीय संघ, कूर्चक संघ-इन संघों को दान सम्मानादि से प्रश्रय देकर उनके और अधिकाधिक फलने-फूलने में बड़ा योगदान दिया। . जैन शिला लेख संग्रह, भाग २ लेख सं० ६५, १२१, १२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy