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________________ २७८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ अरिहन्त भगवन्तों के अर्थात् अहंतों के नाम पर प्रदत्त खेट् ग्राम में आत्म कल्याण के लिये अपने सेनापति श्रुतकीर्ति को बदोवर क्षेत्र प्रदान किया।" आज से लगभग १५८३ वर्ष पूर्व उम्र कित इस अभिलेख के एक-एक अक्षर से प्राज भी यही प्रतिध्वनित होता है कि कदम्ब वंश के पञ्चम नरेश महाराजा काकुत्स्थ वर्मा वस्तुत: जैन धर्म के उपासक थे। इस लेख में जो ८०वें वर्ष का उल्लेख है उससे कदम्ब वंशी राजाओं के काल निर्णय में बड़ी सहायता मिलती है। यह अस्सी वां वर्ष किस संवत्सर का है, इस विषय की ऐतिहासिकता पर विचार करने पर यह तथ्य प्रकाश में आता है कि कदम्बवंशी राजाओं ने तो अपना कोई संवत्सर नहीं चलाया। गुप्त राजवंश के साथ कदम्ब राजवंश का घनिष्ठ पारिवारिक सम्बन्ध था। कदम्ब वंश के पांचवें राजा काकुत्स्थ वर्मा की एक कन्या का विवाह गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के एक पुत्र के साथ किया गया था। उस समय तक गुप्त संवत् लोकप्रिय एवं बहजनमान्य हो चुका था। अत: इस घनिष्ठ पारिवारिक सम्बन्ध के परिणाम स्वरूप कदम्ब वंशी राजाओं ने भी, बहुत सम्भव है प्रतापी गुप्त राजाओं के बहजन सम्मत संवत् को मान्य कर लिया होगा। इससे यह अनुमान किया जाता है कि युवराज काकुत्स्थ वर्मा ने उक्त ताम्र पत्र में वरिणत यह क्षेत्र दान गुप्त संवत् ८० तदनुसार ई. सन् ३६६ (गुप्त सम्राट चन्द्र गुप्त (द्वितीय) के शासन के २४वें वर्ष) में दिया । गुप्त वंशीय राजाओं के इतिहास सम्मत काल के अनुसार गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल ई. सन् ३७५ से ४१४ तक का माना गया है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि काकुत्स्थ . वर्मा ने ही अपनी पुत्री का विवाह अपने समकालीन चन्द्रगुप्त के पुत्र के साथ ई. सन् ४०० से ४१० के बीच की अवधि में किसी समय कराया होगा। __ कदम्ब वंशी राजाओं की जैन मन्दिरों-मठों ग्रादि के प्रति प्रगाढ़ रुचि थी। उनके जीर्णोद्धार के लिए इन के द्वारा दिये गये दानों के विवरण प्राचीन अभिलेखों में उपलब्ध होते हैं, किन्तु मन्दिरों-मठों में झाडू निकालने व र हे सदा साफ-सुथरा रखने के लिये मृगेश वर्मा द्वारा दिये गये दान से कदम्ब वंशी राजाओं की जैन धर्म के प्रति प्रगाढ आस्था का परिचय प्राप्त होता है कि वे न केवल जैन धर्म के प्रति ही अपितु जैन धर्म स्थानों के प्रति भी कितने सजग थे । कदम्ब वंशी राजाओं के शासनकाल के ई. सन् ८०० से १३०७ ई. की अवधि के अब तक अनेक अभिलेख उपलब्ध हुए हैं। 3 । . दि. च. सरकार द्वारा लिखित सक्मेसर प्राफ सात वाहनाज पृष्ठ २५६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग २, पृ. ६६८-६६६ (रचनाकार ग्राचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज) Epigraphic Karnatika Vol. VIII Introduction. 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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