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द्रव्य परम्पराओं के सहयोगी राजवंश ]
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(शान्ति वर्मा के) उत्तराधिकारी राजा मृगेश वर्मा और मृगेश वर्मा के पुत्र महाराजा रवि वर्मा द्वारा दिये गये ग्राम दानों के उल्लेख में अन्तिम दान के सम्बन्ध में लिखा गया है कि इस ग्राम से जो प्राय हो वह धन राशि प्रतिवर्ष कार्तिक मास के अन्त में जिनेन्द्र भगवान की महिमा के लिये अष्टाह्निक महोत्सव मनाने के कार्य में और चातुर्मासावासावधि में यापनीय संघ के तपस्वी साधुओं को आहार प्रदान करने के कार्य में व्यय की जाय । इसमें ऐतिहासिक महत्व की निम्नलिखित तीन बातें हैं :
(१) इन कदम्ब वंशी चारों राजाओं के शासन काल में यापनीय संघ एक बड़ा शक्तिशाली तथा राजा एवं प्रजा दोनों ही का श्रद्धाभाजन और लोकप्रिय संघ था। (२) कुमारदत्त प्रमुखा हि सूरयः अनेक शास्त्रागमखिन्न बुद्धयः ।
जगत्यतीतास्सुतपोधनान्विता, गणोऽस्य (गणश्च) तेषां भवति प्रमाणतः ।। ___इस ताम्र पत्र की १८ वीं से २० वीं पंक्ति में उकित इस श्लोक से यापनीय संघ के सुदीर्घ अतीत के इतिहास का संकेत मिलता है कि इस संघ के गण विशेष में आचार्य कुमारदत्त प्रमुख अनेक तपोधन एवं आगम निष्णात प्राचार्य हुए और उनका यह गरण लोक में प्रामाणिक माना जाता था। (३) धर्मेप्सूभिजनि पदेस्सनागरैः, जिनेन्द्र पूजा सततं प्रणेया ।
इति स्थिति स्थापितवान् रवीश: पलाशिकायांनगरे विशाले । यस्मिन्जिनेन्द्र पूजा प्रवर्तते, तत्र तत्र देशवृद्धि । नागराणां निर्भयता, तद्देश स्वामिनाञ्चोर्जा नमो नमः ।।
ताम्र पत्र में उल्लिखित इन श्लोकों से स्पष्टतः प्रकट होता है कि कदम्ब वंशी राजा न केवल स्वयं ही जिनेन्द्र प्रभु के उपासक थे अपितु वे प्रजा के लिये धर्माराधन की इस प्रकार की मर्यादा स्थापित कर अपनी प्रजा को भी जिनेन्द्र की उपासना के लिये प्रोत्साहनपूर्ण निदंश देते थे।
इसी प्रकार कदम्ब वंश के पांचवें प्रतापी महाराजा काकुत्स्थ वर्मा का ताम्र पत्रीय अभिलेख सं०६६ भी अनेक दृष्टियों से एक बडा ऐतिहासिक महत्व का लेख है ' । इस ताम्रपत्रीय अभिलेख का शब्दश: सारार्थ इस प्रकार है--"नमन है उन गुरण निधि अगाध दया सिन्धु जिनेन्द्र भगवान् को ! जय-विजय हो उनकी, जिनकी त्रिलोक के समग्र प्राणी वर्ग को अभय दान द्वारा आश्वस्त करने वाली दयामयी पताका निखिल ब्रह्माण्ड में फहरा रही है-लहरा रही है। प्रजाजनों के प्राणा केन्द्र कदम्ब राजवंश के युवराज काकुत्स्थ वर्मा ने ८० वें वर्ष (गुप्त सं० ८० तदनुसार ई० मन् ३६६) में, समार के सभी प्राणियों को संसार सागर से पार उतारने वाले . जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेग्य संख्या ६६, पृष्ठ ६६-६७
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