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________________ द्रव्य परम्पराओं के सहयोगी राजवंश ] [ २७१ से १५३४ तक गंग राजवंश की इस शाखा के राजा कलिग के प्रभुसत्ता सम्पन्न राजा रहे। ईस्वी सन् ११६६ में कलिंग की शाखा के एक मात्र "चोल गंग" राजवंश के नाम से लंका में गंगों का राज्य था । इस प्रकार के अभिलेख मिले हैं। कलिंगाधिपति गंगराज ने ईस्वी सन् १५५० के आसपास शिव समुद्रम् की विधा स्थापित की। गंग राज के पश्चात् नन्दिराज कलिंग का राजा बना । इनके पश्चात् गंगराज द्वितीय कलिंग के सिंहासन पर बैठा । इस गंगराज द्वितीय के पश्चात् गंगराजवंश का नाम तक शिलालेख आदि में कहीं नहीं मिलता और इस प्रकार इतिहास से इस राजवंश का नाम तिरोहित हो जाता है। गंग सजवंश की राजधानी तलकाड् के पतन के पश्चात् भी जिद्दुलिगेनाड् (वनवासीनाड़ के अन्तर्गत) में गंग राजवंश के राजाओं का प्रथमतः चालुक्यों के अधीनस्थ राजाओं के रूप में और तदनन्तर होयसल राजवंश के अधीनस्थ राजाओं के रूप में राज्य था एवं उद्धरे में उनकी राजधानी थी। यह तथ्य इस राजवंश के ईस्वी सन् ११२६ से लेकर ११६८ तक के शिलालेखों से प्रकाश में प्राता है । नगर के लेख संख्या १४० में गंगवंश के उद्घरे शाखा के राजाओं के जिन नामों का उल्लेख है, वे क्रमश. इस प्रकार हैं : १. गंगराजा बिट्टिग । उसका पुत्र२. मारसिह देव । ३. कोत्तिदेव । ___४. मारसिंह देव द्वितीय । इसने कांचि को लूटा और वहां से विपुल सम्पदा अपनी राजधानी उद्धरे में ले गया। इसकी छोटी बहिन सुम्मियव्व रसि बड़ी ही मिष्ठा थी। इसने एक भव्य वसदि का निर्माण करवा कर उसके लिए भूमिदान दिया। इसकी बड़ी बहिन कनकियव्व रसि ने स्थान-स्थान पर जिनमन्दिर बनवाये और उनकी व्यवस्था के लिये भूमिदान दिये । जहां जिन मुनियों के प्राय का कोई साधन नहीं था वहां उसने भूमिदान दिया। __५. एक्कल देव । इसकी बहिन चट्टियन्व रसि को वुद्री के ईस्वी सन् ११३६ के शिलालेख संख्या ३१३ में- इसके द्वारा दिये गये अनेक भूमिदान द्रव्यदान आहार दान आदि के कारण कामधेनु और चिन्तामणि की उपमा दी गई है। ६. एरग । एरग का छोटा भाई-- ७. नरसिंह अथवा नन्निय गंग । ८. एक्कल । इसने विभिन्न प्रान्तों के विद्वानों तथा कवियों को उदारतापूर्वक बड़े-बड़े प्रीतिदान दिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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