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________________ द्रव्य परम्पराओं के सहयोगी राजवंश । [ २६५ ___७. अविनीत गंग । (ईस्वी सन् ४२५ से ४७८) यह राजा परम आस्थावान जिनभक्त था। दक्षिण में धर्म और चातुर्वर्ण्य की रक्षा की दिशा में इसकी वैवस्वत मनु से तुलना की गई है। यह कदम्ब वंशी राजा काकुत्स्थ वर्मा का दौहित्र और कदम्बवंशी राजा कृष्णवर्मा का भागिनेय था।' इसका विवाह पुन्नाड के राजा स्कन्धवर्मा की पुत्री से हुआ। इनकी अन्तरात्मा विद्या और विनय से प्रोत-प्रोत थी। यह राजा अजेय योद्धा और विद्वानों में अग्रगण्य माना जाता था। देशीय गरण के भट्टारक चन्द्रनन्दि ने शक सम्वत् ३८८ तदनुसार ईस्वी सन् ४६६ में तलवन नगर के श्री विजय जिनालय के लिये वदण गुप्पे नामक एक सुन्दर ग्राम अकाल वर्ष पृथ्वी वल्लभ के मन्त्री के माध्यम से महाराज अविनीत से दान में प्राप्त किया। अपने सम्बन्ध में शतजीवी होने की बात सुनकर राजाधिराज अविनीत इस बात की परीक्षा हेतु बाढ़ के कारण उद्वेलित एवं महावेगा कावेरी नदी के प्रवाह में कूद गया और उसे तैरकर पार कर गया । ८. विनीत-कोंगणिवद्ध (ईस्वी सन ४७८ से ५१३) इस राजा ने शब्दानुशासन के रचनाकार पूज्यपाद से विद्याध्ययन किया। आन्द्री, अलानूर, पौरुलरे, पेन्नगर आदि क्षेत्रों पर अधिकार करने के लिये अनेक भीषण संग्राम किये तथा पेनाड् और पुन्नाड् पर शासन किया । दुविनीत ने युद्धभूमि में कान्ची के महाराजा कोडवेटि को बन्दी बनाकर अपने भानजे को जयसिंह की परम्परागत राजधानी कान्ची के राज सिंहासन पर आसीन किया। दुविनीत ने किरातार्जुनीय महाकाव्य के १५ सर्गों पर टीका का निर्माण किया । दक्षिण में धर्म एवं वर्ण व्यवस्था की रक्षा के लिए इसे भी वैवस्वत मनु की उपमा दी गई है। ६. मुष्कर-मोक्कर-कौंगणि वृद्ध (ईस्वी सन् ५१३ से) यह राजा प्राणी मात्र के प्रति मैत्रीभाव रखने वाला सच्चा जिन भक्त था । समस्त प्राणी वर्ग के प्रति इसकी प्रगाढ वात्सल्यवृत्ति के परिणामस्वरूप हिंस्र वन्य जन्तुओं के समूह इसके चरणों के पास उपस्थित हो इसके प्रति अपनी श्रद्धा और स्नेह प्रकट करते थे । उसका विवाह सिंधुराज की राजकुमारी के साथ हुआ। १०. श्री विक्रम-कांगणिवृद्ध । यह राजा परमार्हत अर्थात् जिनेश्वर भगवान् का निष्ठावान् परम भक्त होने के साथ-साथ अपने समय का एक माना हया राजनीतिज्ञ एवं रणनीति विशारद था। इसके राज्य की सीमाए तावी नदी जैन शिलालेख संग्रह भाग २, लेख संख्या ६५ पृष्ठ ६३-६६ २ वही ___3 वही लेख संख्या २७७ पृष्ठ ४१४-४२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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