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द्रश्य परम्परामों के सहयोगी राजवंश ]
[ २६३ में पारंगत और सैनिक अभियानों द्वारा राजा लक्ष्मीदेव को विजय श्री का वरण कराने के विज्ञान में निष्णात थे। परम श्रद्धाद सर्वाधिक सुयोग्य मन्त्री और रट्ट राज्य के संस्थापक संरक्षक प्राचार्य मुनिचन्द्र ने प्रशासन कौशल और उदारता आदि गुणों में सभी मन्त्रियों को पीछे छोड़ दिया। वे सब में सर्वाग्रणी मूर्धन्य रहे ।' रट्ट राज्य के अधिपति राजा लक्ष्मीदेव द्वितीय और उसके पिता कार्तवीर्य चतुर्थ इन महान् प्राचार्य के राजनैतिक कौशल और ठोस सत्परामर्शों के परिणामस्वरूप उनके प्रति महाऋणी थे। ये प्राचार्य मुनिचन्द्र भी यापनीय संघ के ही प्राचार्य प्रतीत होते हैं क्योंकि इस शिलालेख में प्रभाचन्द्र सिद्धान्त देव एवं उनके (प्रभाचन्द्र के) शिष्य इन्द्र कीत्ति और श्रीधर देव के सम्बन्ध में थोड़ा सा विवरण उल्लिखित है। ये सभी प्राचार्य निर्विवाद रूपेण यापनीय संघ के थे।
सामान्यत: पाठकों और विशेषतः शोधार्थियों के लाभार्थ एतद् सम्बन्धी कतिपय ज्ञातव्य तथ्यों का यहां प्रसंगवशात् उल्लेख किया गया है।
उपरि वरिणत शिलालेखों में, मुख्यतः शिलालेख संख्या २७७ बी लइस राइस और बी लूइस राइस द्वारा अनेक शिलालेखों के प्राधार पर तैयार की गई इस राजवंश की क्रमबद्ध (संक्षिप्त विवरण सहित) सूची में गंग राजवंश के प्रथम से लेकर अन्तिम तक राजामों का जो अनुक्रम दिया गया है वह संक्षेप में इस प्रकार है :
(१) दडिग् और माधव कोंगणिवर्मा महाधिराज । कोंकरण के अभियान और राज्य की अभिवृद्धि के पश्चात् दडिग् और माधव कुवलाल (कोलाल कोल्हार) में शान्तिपूर्वक राज्य करने लगे। कालान्तर में दडिग् को पुत्र की प्राप्ति हुई और उसका नाम माधव द्वितीय रखा गया, जो आगे चलकर किरिया माधव के नाम से विख्यात हुमा। दडिग् और माधव कोंगरिणवर्मा ने अपनी विजयपताका पर अपने गुरु और राज्य की स्थापना करने में सहायभूत प्राचार्य सिंहनन्दि के धर्मोपकरण मयूरपिच्छी का चिन्ह अंकित किया । उन्होंने बाणमण्डल पर अधिकार करके वहां पर अपनी मयूर पिच्छांकित पताका फहराई। इन दोनों भाइयों की सम्पूर्ण देहयष्टियां युद्धों में लगे शस्त्रास्त्रों के प्रहारों के घावों से अलंकृत हो गई थीं।
' जैनिज्म इन साउथ इंडिया एण सम जैन एपिग्राफ्स पृष्ठ ११५ २ जर्नल माफ दी बोम्बे बांच प्राफ दी रोयल एसियाटिक सोसायटी, बम्बई, वोल्यूम x,
पी. पी. २६० 3 गंग राजवंश के प्रत्येक राजा के नाम के प्रागे यह उपाधि लगी हुई है। जब तक विशिष्ट
उल्लेख नहीं किया जाय तब तक प्रत्येक राजा को उसके पूर्व के राजा का पुत्र समझा जाय।
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