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________________ २६२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ रणांगण में डटे रहोगे, पलायन नहीं करोगे तब तक तुम्हारा राज्य अक्षुण्ण रहेगा। रणांगण में पीठ दिखाकर अगर युद्ध भूमि से पलायन करोगे तो तुम्हारा राजवंश नष्ट हो जायगा। यह जो शिक्षा प्राचार्य सिंहनन्दि ने दी इस प्रकार की शिक्षा इतने स्पष्ट शब्दों में देने की परम्परा पुरातनकाल से ही जैन मुनियों में नहीं रही है। देवद्धिगणि क्षमाश्रमण से उत्तरवर्ती काल में चैत्यनासी, यापनीय, एवं भट्टारक आदि अनेक नवीनपरम्पराभों ने देश काल की बदलती परिस्थितियों के नाम पर अनेक नई मान्यताएं प्रचलित की। प्राचीन अभिलेखों के पर्यावलोचन से यह सहज ही सिद्ध हो जाता है कि अभिनव मान्यताएं प्रचलित करने की दिशा में जनमत को अधिकाधिक जैन मत की ओर आकर्षित करने के उद्देश्य से यापनीय संघ के प्राचार्य अपेक्षाकृत चैत्यवासियों से भी प्रागे रहे। गोम्मटेश की मूर्ति के निर्माण, ज्वालामालिनी देवी के स्वतन्त्र एवं पृथक मन्दिर के निर्माण आदि कार्यों से तीर्थंकरों के अतिरिक्त अन्य मूर्तियों एवं मन्दिरों की रचना का श्रीगणेश यापनीय संघ ने किया। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि नवीन मान्यताओं के रूप में उपरिलिखित सातवी शिक्षा का प्राविष्कार भी बदलती हुई परिस्थितियों के सन्दर्भ में यापनीयों ने किया हो। . किसी राजा द्वारा दिग्विजय के लिये किये गये सैनिक अभियान में कोई पंच महाव्रतधारी जैन मुनि विजय अभियान में प्रवृत्त राजा के साथ-साथ गया हो, इस प्रकार का उदाहरण भगवान महावीर की मूल श्रमण परम्परा के इतिहास में खोजने पर भी नहीं मिल सकता । किन्तु इस शिलालेख संख्या २७७ में एक तथ्य के रूप में यह उल्लेख विद्यमान है कि राज्य प्राप्त करने के पश्चात् दडिग और माधव ने सेना के साथ कोंकण विजय के लिये अभियान किया । मार्ग में उन्होंने एक गंडलि (पहाड़ी) देखी। वहां कमल दलों से पाच्छादित एवं मछलियों से संकुल सरोवर के पास उन्होंने पडाव डाला । पहाड़ी के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर प्राचार्य सिंहनन्दि ने राजा से वहां एक चैत्यालय का निर्माण कराने की प्रेरणा की। दडिग और माधव ने प्राचार्य की भाजा को शिरोधार्य कर वहां चैत्य का निर्माण करवाया। इससे भी अधिक माश्चर्यकारी शिलालेख सौन्दत्ती से उपलब्ध हमा है। ईस्वी सन् १२२८ के इस शिलालेख में रट्ट राजवंश के गुरु प्राचार्य मुनिचन्द्र को इस राजवंश के धर्मगुरु के साथ-साथ राजनैतिक परामर्शदाता, राज्य के प्रशासकीय कार्यों में सक्रिय सहयोगी और दिग्विजय हेतु राजा लक्ष्मीदेव द्वितीय (मुख्यमहामण्डलेश्वर वेणुग्राम वर्तमान में बेलगांव) द्वारा किये गये सैनिक अभियानों (प्राक्रमणों) में प्रमुख परामर्शदाता, प्रमुख सहयोगी बताया गया है। इस अभिलेख में उल्लेख है कि प्राचार्य मुनिचन्द्र ने वेणुग्राम के रट्ट राज्य का सीमानों की अभिवृद्धि के साथ अभिवर्धन कर उसे सुरढ़ किया। प्राचार्य मुनिचन्द्र धर्मशास्त्रों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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