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________________ द्रव्य-परम्परागों के सहयोगी राजवंश ] [ २५७ गंग राजवंश (ईसा की दूसरी से ग्यारहवीं शताग्दी) भारत के दक्षिण प्रदेश में जैन धर्म के प्रति श्रद्धा, आस्था एवं उदारतापूर्ण व्यवहार रखने वाले मध्ययुगीन राजवंशों में गंग राजवंश का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रहा है। गंग राजवंश का शासन काल बड़े अथवा छोटे रूप में, स्वतन्त्र राजाधिराज अथवा किसी अन्य महाराजाधिराज के वशवर्ती सामन्तों के रूप में, ईस्वी सन १०३ से १६०० के आसपास तक रहा । इस राजवंश के शासन काल में इस राजवंश के राजाओं, रानियों, राजकुमारों, मन्त्रियों एवं सेनापतियों आदि के सहयोग से जैनधर्म दक्षिण भारत के प्रमुख एवं लोकप्रिय धर्म के रूप में पुष्पित एवं पल्लवित हा। इस राजवंश के राजाओं ने अपनी राजधानी सर्वप्रथम कुवलाल (कोल्हार) में और तत्पश्चात् कावेरी के तट पर तलकाड़ में रक्खी । ईस्वी सन् १०६४ में चोलों द्वारा तलकाड पर अधिकार कर लिये जाने पर इस राजवंश की एक शाखा ने कलिंग में और कलिंग के साथ-साथ लंका में भी राज्य किया। दूसरी शाखा ने तलकाड के पतन के पश्चात उद्धरे में अपनी राजधानी स्थापित की। अमर कृति - इसी राजवंश के इक्कीसवें राजा रायमल्ल द्वितीय सत्यवाक्य (ईस्वी सन् ९७४ से ६८४) के शासनकाल में उनके महामात्य चामुण्डराय ने सुवर्ण वेलगुल (कर्णाटक) में विन्ध्यगिरि नाम की पहाड़ी पर उसी पहाड़ी के शिखर पर उपलब्ध एक अखंड शिलाखंड को काट, तराश एवं घड कर भगवान बाहुबली की एक ५६ फीट ऊंची मूर्ति का निर्माण ईस्वी सन् ६८० में कराया। पैर से लेकर सिर तक एक ही शिलाखण्ड से निर्मित यह बाहुबली (गोम्मटेश्वर) की अतीव भव्य एवं विशाल मूर्ति वास्तव में संसार के आज दिन तक ज्ञात अनेक आश्चर्यों में से एक आश्चर्य है। चामुण्डराय ने विन्ध्यगिरि पहाड़ी की पार्श्वस्थ चन्द्रगिरि नामक पहाड़ी पर भी भगवान् नेमिनाथ के एक भव्य मन्दिर का ईसा की दसवीं शताब्दी में निर्माण कराया। इन अमरकृतियों के कारण चामुण्डराय के साथ-साथ गंग राजवंश का नाम भी जैन साहित्य एवं इतिहास में चिरकाल तक स्मरणीय रहेगा। गंग राजवंश के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक प्राय: सभी राजा जैनधर्म के प्रति पूरे निष्ठावान रहे। ईसा की चौथी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक की पुरातात्विक सामग्री, ग्रन्थों, ताडपत्रों, एवं शिलालेखों आदि से यह प्रमाणित होता For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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