SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ३ से दक्षिणा पथ का एक प्रमुख, शक्तिशाली एवं बहुजन सम्मत धर्म रहा । अनेक शिलालेखों, पुरातात्विक अवशेषों एवं "जैन संहार चरितम्" आदि शैव परम्परा की प्राचीन साहित्यिक लघु कृतियों से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि तमिलनाडु तथा आन्ध्र- कर्णाटक में शैव सम्प्रदाय एवं वैष्णव सम्प्रदाय के अभ्युदयोत्कर्ष से पूर्व जैन धर्म का दक्षिणी प्रान्तों में सर्वाधिक ही नहीं अपितु अत्यधिक वर्चस्व था। इस तथ्य के प्रतिपादक "जैन संहार चरितम्" के कतिपय स्थलों का हिन्दी रूपान्तर सामान्यतः सभी जिज्ञासुओं के लिये और विशेषतः इतिहास में अभिरुचि रखने वाले विज्ञों एवं शोधार्थियों के लाभार्थ यहां प्रस्तुत किया जा रहा है : "पूर्वकाल में पृथ्वी भर में श्रमण लोगों की संख्या अधिक मात्रा में थी। राजा और प्रजा सभी इस धर्म (जैन धर्म) में ऐक्यत्व को प्राप्त हो गये थे। इस (जैन) धर्म में लोगों की प्रास्था अधिक होने के कारण अन्य धर्म की बातें उन्हें रुचिकर नहीं लगती थीं। सब जगह अरिहन्त भगवान् की उपासना की जाती थी । तन पर के वस्त्र और शिर के केशों तक पर भी मोह नहीं रखने वाले एवं समस्त प्रकार की प्राशानों-आकांक्षाओं से रहित होकर गिरिगुहाओं में एकान्त निवास पूर्वक तपश्चरण करने वाले तपोधन भी यही मानते थे कि अरिहन्त भगवान् ही सब कुछ हैं । सम्पूर्ण जनमानस में यही एकमात्र अटल आस्था थी कि पहले (लौकिक) । सुख देकर अन्त में मुक्ति (मोक्ष) प्रदान करने बाले अर्हन्त भगवान् ही सर्वोपरि सर्वस्व अर्थात् सब कुछ हैं। इस प्रकार जब श्रमण धर्म प्रति उन्नत दशा में था, तब चोल मण्डल नामक प्रदेश के........."गांव में ब्राह्मण कुल में सुन्दर मूर्ति का जन्म हुआ। वे पांच वर्ष की वय में ही अपने जन्म-स्थान से निकलकर मदुरै (दक्षिण मथुरामदुरई) पहुंचे और वहीं रहने लगे। उस समय मदुरै नगर में स्थित ८००० श्रमण सन्त 'सोक्कनादर' नामक शिव मन्दिर के कपाटों को पर्याप्त समय पूर्व ही बन्द करवाकर अपने धर्म का प्रचार करने में संलग्न थे। . जब सुन्दर मूर्ति कुछ बड़े हुए तब किसी कारणवश वे शैव सन्त बन गये। उन्होंने अपने कर्तव्य के रूप में श्रमण धर्म के प्रचारकों को फांसी पर लटका कर शैव धर्म का उद्धार करने का संकल्प किया। शिव भगवान् के परम भक्त होने के कारण उन पर भगवान शिव प्रसन्न हए। शिव ने उन्हें वरदान दिया-"तुम श्रमणों का संहार कर शैव धर्म का प्रचार-प्रसार करोगे।" शैव सन्त बनने के पश्चात् वे सुन्दरमूर्ति नायनार एवं ज्ञान सम्बन्ध मूर्ति के नाम से विख्यात हए । ज्ञान सम्बन्ध मूर्ति ने (शिव द्वारा प्रदत्त) मोतियों से जड़ी पालकी में बैठकर श्रमण-संहार के लिये प्रस्थान किया । ........ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy