________________
द्रव्य परम्पराओं के सहयोगी राजवंश ]
[ २५३
इस तथ्य को तो प्रत्येक विज्ञ विचारक बिना किसी प्रकार की हिचकिचाहट के स्वीकार करेगा कि-"जैन संघ किस प्रकार एक शक्तिशाली धर्मसंघ के रूप में ससम्मान जीवित रह सकता है"- यह भावना उन मध्ययुगीन द्रव्य-परम्पराओं के सूत्रधारों के अन्तर्मन में प्रोत-प्रोत थी। इस प्रकार की पवित्र भावना उन द्रव्य परम्परागों के सूत्रधारों की सफलता में वस्तुतः बड़ी सहायक सिद्ध हुई । उन द्रव्य परम्पराओं के सूत्रधारों, आचार्यों, श्रमण-श्रमरिणयों का इस दिशा में निष्ठापूर्ण अथक प्रयास व परिश्रम भी उनकी सफलता में प्रमुख सहायक रहा । यह सब कुछ होते हुए भी उन द्रव्य परम्पराओं को शक्तिशाली धर्म संघों के रूप में लोकप्रिय बनाने का अधिकांश श्रेय उन राजवंशों को ही दिया जा सकता है, जिन्होंने तनमन-धन और जन से सहयोग देकर इन परम्पराओं के उत्कर्ष के लिये न केवल जीवन भर ही अपितु पीढ़ी प्रपीढ़ियों तक अथक प्रयास किया।
जिस समय पूर्व से पश्चिम और हिमालय से परेवर्ती सुदूर उत्तरवर्ती सीमाओं से लेकर दक्षिण सागर तट तक ही नहीं अपितु दक्षिण सागरवर्ती द्वीपों तक में प्रसृत-फैले हुए जैन संघ पर चारों ओर से एवं मुख्यतः दक्षिणापथ से विनाशकारी घोर संकट के बादल घूमड़-घुमड़ कर घिर उठे थे, उन संकट की घड़ियों में, उस घोर संक्रान्ति काल में इन द्रव्य परम्पराओं के सूत्रधारों-प्राचार्यों ने समय-समय पर विभिन्न क्षेत्रों में सत्तारूढ़ राजवंशों का पाश्रय ग्रहण कर एवं प्रावश्यकता पड़ने पर पोयसल (होयसल), गंग जैसे अभिनव राजवंशों की स्थापना कर उनकी सहायता से जैन संघ को जीवित रखने में जैन संघ की रक्षा करने में जो उल्लेखनीय कार्य किये, वे सदा-सदा जैन इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेंगे।
जैन संघ सदा से प्रार्य धरा पर एक सुदृढ़ शक्तिशाली धर्मसंघ के रूप में रहा है । आदिकाल से इक्ष्वाकु वंश के राजामों ने, तदनन्तर हरिवंश-यदुवंश, पोरववंश, शिशुनाग वंश, गर्दभिल्ल वंश, सातवाहन वंश, चेदिवंश एवं मौर्य वंश पादि अनेक यशस्वी राजवंशों के राजाओं ने समय-समय पर अपने-अपने शासन काल में विश्वबन्धुत्व की भावनाओं से प्रोत-प्रोत विश्वकल्याणकारी जैन धर्म के प्रचार-प्रसार-पल्लवन उत्कर्ष के लिये जो-जो उल्लेखनीय कार्य किये उनका वीर नि० सं०१००० तक का साररूप में लेखा-जोखा इसी ग्रन्थमाला के प्रथम एवं द्वितीय भाग में प्रस्तुत किया जा चुका है।
वीर नि० सं० १००० के उत्तरवर्ती काल में समय-समय पर सातवाहन, चोल, चेर, पाण्ड्य, कदम्ब, गंग, चालुक्य, राष्ट्रकूट, रट्ट, शिलाहार, पोयसल मादि राजवंशों ने जैनधर्म को आश्रय-प्रश्रय प्रदान कर इसके प्रभ्युदय उत्कर्ष के कार्यों में उल्लेखनीय योगदान दिया। ईसा की पांचवी-छठी शताब्दी तक जैन धर्म मुख्य रूप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org