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द्रव्य-परम्पराओं के प्रचार-प्रसार एवं उत्कर्ष
में सहयोगी राजवंश
चैत्यवासी, भट्रारक एवं यापनीय प्रभृति द्रव्य परम्पराओं के प्रचार-प्रसार एवं संवर्द्धन में होयसल (पोय्सल), कदम्ब, गंग एवं राष्ट्रकूट राजवंशों का बड़ा ही उल्लेखनीय योगदान रहा।
उन चैत्यवासी आदि द्रव्य परम्पराओं ने परम्परागत नितान्त अध्यात्मपरक, भावार्चनापरक जैन संघ को किस प्रकार नया मोड़ देकर आध्यात्मिक भावार्चना के स्थान पर द्रव्यार्चना-द्रव्यपूजा-प्रधान स्वरूप प्रदान किया, इस सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक प्रकाश डालने का प्रयास इन द्रव्यपरम्पराओं के परिचय में किया जा चुका है। जिन राजवंशों को अपनी-अपनी द्रव्य-परम्परा का अनुयायी बनाकर अथवा जिन-जिन राजवंशों का आश्रय ग्रहण कर उन द्रव्य परम्पराओं के प्राचार्यों ने अपनी-अपनी परम्परा का प्रचार-प्रसार किया, जिन-जिन राजवंशों से उन द्रव्य परम्पराओं के प्राचार्यों, साधु-साध्वियों ने साधु-साध्वियों के आहार-विहार प्रावास
आदि की व्यवस्था के लिये ग्रामदान, भूमिदान, द्रव्यदान आदि ग्रहण कर द्रुतगति से द्रव्य परम्पराओं का प्रचार-प्रसार एवं विस्तार करने में सफलता प्राप्त की, उन राजवंशों का एवं इन द्रव्य-परम्पराओं के उत्थान-उत्कर्ष के लिए उन राजवंशों द्वारा किये गये कार्यों का परिचय देना ऐतिहासिक आदि सभी दृष्टियों से परमावश्यक है।
जैन धर्म के परम पवित्र एवं परम मान्य आगम आज भी विद्यमान हैं, मध्य युग में भी विद्यमान थे। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थकर भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट उन जैन आगमों में जैन धर्म के स्वरूप का, स्व तथा पर के लिये कल्याणकारी करणीय कार्यों-कर्तव्यों का, श्रमण-श्रमणियों, प्राचार्यों के लिये आचरणीय आचार-विचार-आहार-विहार एवं दैनन्दिन कार्य-कलापों का सुचारू रूपेण सुबोध्य शैली में सुस्पष्ट दिग्दर्शन विद्यमान है, उल्लिखित है । उन आगमिक उल्लेखोंआदेशों से नितान्त भिन्न एवं प्रायः प्रतिकूल दिशा में चलकर भी वे द्रव्य परम्पराए मध्ययुग में किस प्रकार उत्तरोत्तर अभिवृद्ध होती गई, लोकप्रिय होती गई, उनके प्रचार-प्रसार और उत्कर्ष में कौन सी शक्ति सहायक थी, इस दृष्टि से भी इन द्रव्य परम्परानों को आश्रय अथवा प्रश्रय देने वाले राजवंशों का परिचय देना परमावश्यक है।
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