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यापनीय परम्परा ]
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प्रभुत्व स्थापित हो गया । इसके पश्चात् यापनीय संघ धारवाड़ कोल्हापुर और बेलगांव इन सभी जिलों का प्रमुख एवं लोकप्रिय धर्मसंघ बन गया। आगे चलकर ईसा की ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी में यापनीय संघ का धर्मप्रचार क्षेत्र केवल उत्तरी कर्णाटक में ही सीमित रह गया ।
यापनीय संघ के प्राश्रयदाता राजवंश
कर्णाटक के गंग राजवंश के और पोय्सल राजवंश के राजा प्रारम्भ से लेकर अन्त तक जैन धर्मावलम्बी रहे । इनके अतिरिक्त कदम्ब वंश, राष्ट्रकूट वंश, रट्ट वंश, चालुक्य वंश, शान्तर वंश, कलचुरी वंश आदि अनेक राजवंशों के राजाओं ने समय-समय पर अपने शासनकाल में जैनधर्म को संरक्षण दिया और जैनधर्म के प्रचार प्रसार में इन राजवंशों के राजाओं ने मुक्त हस्त हो सहायता की ।
पोय्सल राज्य के संस्थापक प्राचार्य सुदत्त किस परम्परा के आचार्य थे इस सम्बन्ध में प्रमारणाभाव से सुनिश्चित रूपेण कुछ भी नहीं कहा जा सकता, किन्तु मैसूर - धारवाड़ सौरभ कुपत्तूर हलसी आदि क्षेत्रों में ईसा की तीसरी, चौथी शताब्दी से ही यापनीय संघ का पूर्ण वर्चस्व रहा और कई राजवंशों की स्थापना के लिये एवं 'गंग राजवंश' जैसे जैन धर्मावलम्बी राजवंश की अभिवृद्धि के लिये, जैनाचार्यों ने, जो अनुमानत: यापनीय संघ के ही हो सकते हैं, बड़ी गहरी रुचि ली । जैनाचार्यों का अपने ऊपर वरदहस्त होने के परिणामस्वरूप जैन राजवंशों ने जैन धर्म की अभिवृद्धि के लिये अपनी पीढ़ी प्रपीढ़ी तक जो-जो उल्लेखनीय कार्य किये, उनके विवरण दक्षिण के प्रायः सभी प्रान्तों से मुख्यतः कर्णाटक से प्राप्त हुए अभिलेखों, शिलालेखों एवं मूर्ति लेखों आदि में भरे पड़े हैं जिनका विस्तारपूर्वक वर्णन राजवंशों के प्रकरण में यथास्थान किया जायगा ।
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