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________________ २५० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ लिये एवं उसके प्रबल प्रचार प्रसार के सदुद्देश्य से राज्याश्रय प्राप्त करके उन यापनीय महान आचार्यों ने श्रमण धर्म के प्रतिकूल कार्यों को करना भी स्वीकार किया। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है न केवल यापनीय परम्परा अपितु अन्य परम्पराओं के प्राचार्यों ने भी मुनिधर्म के विपरीत मार्ग का अनुसरण करते हुए ग्रामादि का दान स्वीकार करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं किया। ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय में मुनियों की भोजन व्यवस्था के लिये मन्दिरों के निर्माण एवं उनकी दैनन्दिन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्राचार्यों द्वारा दान ग्रहण करना एक व्यापक और सर्वसम्मत कार्य हो चुका था। मन्दिरों का पौरोहित्य करना, उनकी व्यवस्था करना एवं उनका निरीक्षण करना आदि कार्य भी, जो कि वस्तुतः एक मुनि के लिये सदोष होने के कारण त्याज्य हैं, आचार्यों ने समय के प्रभाव से प्रभावित होकर अपने हाथ में ले लिये थे। कलभावी नामक ग्राम (सम्पगांव तालुक) के रामलिंग मन्दिर के बाहर से प्राप्त हुए शक सम्वत् २६१ के एक शिलालेख में, जो शोध के पश्चात् ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी का माना गया है, यह उल्लेख है कि पश्चिमी गंगवंश के राजा शिवमार ने कुमुदवाड़ (कलभावी) में एक जैन मन्दिर का निर्माण करवाया और उस मन्दिर की व्यवस्था के लिये वह पूरा का पूरा मेलाप अन्वय नामक ग्राम, कारेगण के आचार्य देवकीति को दान में दे दिया गया । यह पहले बताया जा चुका है कि कारेगरण यापनीय संघ का एक प्रमुख गण था। इस शिलालेख में कारेगण के कुछ प्राचार्यों के नाम दिये गये हैं जो इस प्रकार हैं: १. शुभकीति, २. जिनचन्द्र, ३. नागचन्द्र, और ४. गुणकीति । यापनीय संघ के प्राचीन केन्द्र ईसा की दूसरी शताब्दी के आस-पास यापनीय संघ तामिलनाड प्रदेश में कन्याकूमारी तक सक्रिय रहा। इस सम्बन्ध में पहले प्रकाश डाला जा चका है। किन्तु ईसा की चौथी पांचवीं शताब्दी में और उसके पश्चात् यापनीय संघ वस्तुतः कर्णाटक प्रान्त के उत्तरवर्ती भाग में ही एक सर्वाधिक लोकप्रिय धर्मसंघ के रूप में सक्रिय रहा । कर्णाटक प्रदेश से प्राप्त शिलालेखों से ज्ञात होता है कि पलासिका जो कि आज बेलगांव जिले का हलसी ग्राम है, यापनीय संघ का प्रचार-प्रसार का ईसा की पांचवीं व छठी शताब्दी में केन्द्र रहा। इसके पश्चात् ईसा की सातवीं शताब्दी में बीजापुर जिले का ऐहोल ग्राम केन्द्र रहा। इसके अनन्तर ईसा की दसवीं शताब्दी में तुमकुर जिले में अनेक स्थानों पर यापनीय संघ ने अपने मुनिसंघों की वसदियों का निर्माण कर उनको अपना केन्द्र बनाकर धर्म का प्रचार व प्रसार किया । इस प्रकार ईसा की दसवीं शताब्दी में तुमकुर जिले में भी यापनीय संघ का पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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