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यापनीय परम्परा ]
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इस शिलालेख में आचार्य मुनिचन्द्र के एक शिष्य प्राचार्य लक्ष्मीदेव का भी नामोल्लेख किया गया है । इन प्राचार्य मुनिचन्द्र के नामोल्लेख के सम्बन्ध में प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता एवं इतिहासज्ञ पी. बी. देसाई ने लिखा है :
“Lastly, we may notice one more inscription from Saundatti, which offers interesting details about the Jain teachers. The epigraph is dated A. D. 9775 and refers itself to the reign of the Ratta Chief Maha Mandaleshwar Laxmi Deo II, who was governing the Kingdom from his capital Venugram (वेणुग्राम) or modern Belgaon (बेलगांव). The Jain teacher was Munichandra (मुनिचन्द्र), who is styled as the royal preceptor of the Ratta House (रट्ट राजगुरु). Munichandra's activities were not confined to the sphere of religion alone. Besides being a spiritual guide and political adviser of the royal house hold, he appears to have taken a leading part not only in the administrative affairs, but also in connection with the military campaigns of the kingdom (वर-बाहा-बलदिम-विरोधीनिपरम् बेंकोंगडन) he is stated to have expended the boundaries of the Ratta territories and established their authority on a firm footing. Both Laxmi Deo II and his father Kart Veerya IV (कात वीर्य चतुर्थ) were indebted to this divine for his sound advice and political wisdum. Munichandra was well versed in sacred lore and proficient in military science. "Worthy of respect, most able among ministers, the establishers of Ratta Kings, Munichandra surpassed all others in capacity for administration and in generousity."१
श्री देसाई द्वारा प्रस्तुत उपरिलिखित शिलालेख के सारांश से यह एक बड़ा ही विस्मयकारी तथ्य प्रकाश में आता है कि जिस प्रकार यापनीय संघ के प्राचार्य सिंहनन्दि ने गंग राजवंश की स्थापना की और उस राजवंश के आदि राजा और भावी राजाओं को युद्धभूमि में शत्रु के सम्मुख डटे रहने का उपदेश दिया, उसी प्रकार उनके उत्तरवर्ती यापनीय प्राचार्य मुनिचन्द्र उनसे भी चार कदम आगे बढ़ गये। उन्होंने रट्ट राजा लक्ष्मीदेव को प्रशासन चलाने में और राज्य विस्तार हेतु सैनिक अभियान प्रारम्भ करने और उन सैनिक अभियानों को सुचारू रूप से चलाने हेतु सक्रिय सहयोग तक दिया। एक पंच महाव्रतधारी प्राचार्य को इस शिलालेख में सर्वश्रेष्ठ सुयोग्य महामन्त्री, कुशल राजनैतिक परामर्शदाता और रणनीति विशारद तक बताया गया है । इससे यही प्रतीत होता है कि उस युग की आवश्यकता को समझकर जैन संघ को एक सशक्त संघ के रूप में बनाये रखने के १. जैनिज्म इन साउथ इण्डिया एण्ड सम जैन इपिग्राफ्स बाई पी. बी देसाई-पेज ११४,
११५ जैन संस्कृति रक्षक संघ, शोलापुर द्वारा १६५७ में प्रकाशित ।
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