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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ ८. माघनन्दि सिद्धान्त देव (उनके शिष्य :-प्रभाचन्द्र द्वितीय हुए।) ६. प्रभाचन्द्र द्वितीय (इनके सधर्मा (गुरुभ्राता) अनन्तवीर्य मुनि
और मुनिचन्द्र मुनि थे। उनके शिष्य
श्रुतकीर्ति हुए। ) १०. श्रुतकीति ११. कनकनन्दि विद्य (अनेक राजानों की राजसभाओं में इन्हें
त्रिभुवन मल्ल वादिराज की उपाधि से अलंकृत एवं सम्मानित किया गया। इनके सघर्मागुरुभ्राता माधवचन्द्र हुए।)
१२. माधवचन्द्र १३. बालचन्द्र यतीन्द्र विद्य १४. अनन्तवीर्य सिद्धान्तदेव १५. मुनिचन्द्र सिद्धान्तदेव'
कारणूरगण यापनीय परम्परा का ही गण था इस बात की पुष्टि अनेक विद्वानों ने की है । कतिपय शिलालेखों में भी कारणूरगण को यापनीय संघ का ही गरण बताया गया है। इसके अतिरिक्त इसी शिलालेख में इस पट्ट परम्परा के सातवें पट्टधर प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव को कारण गण तथा मेष पाषाण गच्छ का प्राचार्य बताया गया है । मेष पाषाण गच्छ यापनीय संघ का ही गच्छ था । इसे इतिहास के सभी विद्वानों ने एक मत से स्वीकार किया है । इन्हीं प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य बुधचन्द्र देव थे । प्राचार्य बुधचन्द्र देव की विद्यमानता में प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव के गृहस्थ शिष्य वर्म देव और भूजवलगंग पेर्माडिदेव ने मंडलि की पहाड़ी पर अवस्थित उस प्राचीन वसदि का पुननिर्माण करवाया जिमे पूर्व काल में दडिग और माधव ने प्राचार्य सिंहनन्दि के निर्देश पर बनवाया था।
इसी यापनीय परम्परा के प्राचार्य मुनिचन्द्र ने रट्ट राजवंश की सीमाओं का विस्तार कर उसे एक शक्तिशाली राज्य का रूप प्रदान किया। महामण्डलेश्वर रट्टराज लक्ष्मीदेव द्वितीय, जो कि अपनी राजधानी वेणुग्राम (साम्प्रतकालीन बेलगांव) में रहकर रट्ट राज्य का संचालन कर रहे थे, द्वारा सौंदन्ती से प्राप्त एक शिलालेख में इन प्राचार्य मुनिचन्द्र को एक कुशल राजनीतिज्ञ रणनीति निपुण और रट्ट महाराज्य का संस्थापक बताया गया है।
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जैन शिलालेख संग्रह भाग २ पृष्ठ ४०८-८२६ लेख मंख्या २७७ जे. बी. प्रार. ए. एम., वाल्यूम १० पेज २६०, एफ. एफ.
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