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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
यापनीय परम्परा से सम्बन्धित जो शिलालेख उपलब्ध होते हैं उनके अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि इस परम्परा के प्राचार्यों एवं साधुओं ने जैन धर्म को एक जीवित धर्म के रूप में बनाये रखने के लिए नई से नई विधाओं का आविष्कार किया। किसी भी जैन अथवा जैनेतर धर्म संघ ने अपने धर्म संघ को सबल बनाने, अपने धर्म के प्रचार प्रसार अथवा लोक प्रवाह को अपनी ओर आकर्षित करने के उद्देश्य से जो-जो आडम्बरपूर्ण आयोजन, उत्सव महोत्सव आदि आविष्कृत किये, उन सब उपायों को बिना किसी हिचक के अपनाने में और धर्म प्रचार के उपायों का नवीनतम आविष्कार करने में यापनीय परम्परा के प्राचार्य एवं साघु साध्वीगण अन्य सबसे आगे ही रहे। उदाहरण के तौर पर मूर्तिपूजा के प्रारम्भिक काल में तीर्थ करों की ही मूत्तियां प्रतिष्ठापित की जाती और तीर्थ करों के ही मन्दिर बनवाये जाते थे, कालान्तर में तीर्थङ्करों के मन्दिरों में ही उनके यक्ष-यक्षरिणयों ग्रादि की मूत्तियां जिन मन्दिर से बाहर रखी जाने लगीं। किन्तु अपने संघ के प्रचार के लिये यापनीयों ने इससे भी एक कदम आगे बढ़कर श्रवणबेलगोल में गंगवंशी महाराजा राचमल्ल के महामन्त्री एवं सेनापति चामुडराय के माध्यम से यापनीय आचार्य नेमिचन्द्र ने संसार प्रसिद्ध बाहुबली की विशाल मूर्ति का निर्माण करवा कर उसकी प्रतिष्ठा की। प्राचार्य नेमिचन्द्र वस्तुत: यापनीय प्राचार्य थे, इसका उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है।
जब बौद्ध और अन्य धर्मावलम्बी तान्त्रिकों ने मन्त्र तन्त्र का सहारा लेकर अपने धर्मसंघों का प्रचार प्रसार करना प्रारम्भ किया तो यापनीय संघ उस दिशा में भी सबसे आगे ही रहा । यापनीय आचार्यों ने ही सर्वप्रथम ज्वालामालिनी देवी का स्वतन्त्र मन्दिर कर्नाटक में बनवाया । यापनीयों ने ही ज्वालामालिनी कल्प, पद्मावती कल्प आदि कल्पों को कर्नाटक में सर्वाधिक लोकप्रिय बनाया।
पंच महाव्रत ग्रहण करते समय प्रत्येक जैन मुनि यह प्रतिज्ञा ग्रहण करता है कि वह त्रिकरण त्रियोग से सब प्रकार के सावद्य योगों का जीवनभर के लिए परित्याग करता है। वह छोटी से छोटी हिंसा न स्वयं करता है, न दूसरों से करवाता है और न छोटी से छोटी हिंसा करने वाले का अनुमोदन ही करता है किन्तु जिस समय लगभग ईसा की पहली दूसरी शताब्दी में जैनधर्म राज्याश्रय से वंचित हो गया और उसके परिणामस्वरूप न केवल उसके प्रचार प्रसार में ही अवरोध आने लगे अपितु जैन संघ का ह्रास भी होने लगा तो प्राचार्य सिहनन्दि ने दडिग् और माधव नामक दो क्षत्रिय पुत्रों को सभी विद्याओं में पारंगत कर उन्हें वनवासी राज्य के राजसिंहासन पर आसीन करने में पर्ण योगदान दिया। इस प्रकार जैन संघ के आचार्य सिंहनन्दि ने गंगराजवंश की स्थापना की। यह गंगराजवंश प्रारम्भ से लेकर अन्त तक जैन धर्मावलम्बी रहा । श्रवणवेलगोल में बाहुबलि की मूत्ति का निर्माण करवाने वाले महामन्त्री चामडराय इसी गंगराजवंश के उत्तर कालवर्ती महाराजा
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