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यापनीय परम्परा ]
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(५) आचार्य सकलचन्द्र भट्टारक ।
६. अभिलेख संख्या ५८२ में मूल संघ, क्राणूर गण, तीन्त्रिणिक गच्छ, कौंड कुण्डान्वय के प्राचार्य श्री वासुपूज्यदेव और उनके शिष्य सकल चन्द्रदेव की प्रशंसा के साथ उन्हें कुरिग्गीहल्ली के गौड़ों द्वारा पारुष देव की बसति बनवा कर उसे दान करने का उल्लेख है।
७. अभिलेख संख्या ४५७ में पोयसल (होयसल) राजवंश के संस्थापक प्राचार्य सुदत्त का और उनके द्वारा क्षत्रिय कुमार सल् को चीते के मारने का प्रादेश देने का उल्लेख है।
इस अभिलेख में मूल संघ क्राणूरगण के प्राचार्य गुणचन्द्र का भी उल्लेख किया गया है।
८. अभिलेख संख्या ४५६ में श्री मूलसंघ क्राणूरगण तीन्त्रिणिक गच्छ के प्राचार्य ललितकीर्ति के शिष्य आचार्य शुभचन्द्र के समाधिपूर्वक स्वर्गगमन और उनकी समाधि पर एक मण्डप खड़ा किये जाने का उल्लेख है ।
६. अभिलेख संख्या ४०८ में मूल संघ, क्रागार गगा, तोनिगिक गच्छ, नुन्हवंश के प्राचार्य भानुकीत्ति को रत्नत्रयदेव की वसति के जीर्णोद्धार के लिये, जैसा कि पहले विस्तारपूर्वक उल्लेख किया जा चुका है, दान दिये जाने का उल्लेख है।
१०. अभिलेख संख्या ७२४. शक सम्वत् १६२१ तदनुसार ईम्बी मन् १६६६ का एक बड़ा ही ऐतिहासिक महत्व का अभिलेख है। यह अभिलेख हागलहिलली मे प्राप्त हना है । इसमें उल्लेग्य है कि मूल संघ तीन्त्रिणिक गच्छ के प्राचार्य प्रादिनाथ पण्डितदेव के श्रावक शिष्य, जोकि जाति से तेली था और जो तिप्पर तीर्थ के हादिल वागिलू गांव का किसान था, और जिसका नाम चामगौड़ था, ने एक पत्थर का तेल निकालने का कोल्हू बनवाया ।
इस अभिलेख मे यह तथ्य प्रकाश में आता है कि शक सम्वत् १६२१ अर्थात् ईस्वी सन् १६६६ तक यापनीय मंघ एक धर्म मंघ के रूप में, चाहे वह कितना ही निर्बल संघ क्यों न रह गया हो, विद्यमान था।
इन उपरिलिखित उल्लेखों से अनुमान लगाना सहज हो जाता है कि यापनीय परम्परा के प्राचार्यों एवं माधु-साध्वियों द्वारा नियत निवास अंगीकार करने के पश्चात् ही भूमिदान, ग्रामदान ग्रादि ग्रहण करने की प्रवृति और मूर्तिपुजा का प्रचलन प्रारम्भ हगा।
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