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________________ यापनीय परम्परा ] [ २४१ श्रुतसागर सूरि द्वारा यापनीय परम्परा की मान्यताओं के सम्बन्ध में जो "रत्नत्रयं पूजयन्ति" वाक्य का प्रयोग किया गया है, इसकी पुष्टि, “चिक्क मागड़ि" में अवस्थित वसवण्ण मन्दिर के प्रांगण में जो एक स्तम्भ लेख विद्यमान है, उससे भी होती है । इस अति विस्तृत शिलालेख के अन्तिम भाग में रत्नत्रय देव की वसदि के सम्बन्ध में जो उल्लेख है वह निम्नलिखित रूप में है : ............“तत्पादपद्मोपजीवि श्रीमन्महा प्रधान बाहत्तर नियोगाधिपति महा प्रचंड दंडनायकं रेचि देवरसनामा गुण्लिय रत्नत्रय देवर बसदियाचार्यर भानुकीत्ति सिद्धान्त देवरं बरिसि मुन्नं समधिगत पंच महा शब्द महामण्डलेश्वरं बनवासिपुरवराधीश्वरं पद्मावती देवी लब्धवरप्रसादं मृगमदामोदं मार्कोल भैरवं कादम्ब कण्ठी........कामिनी लोलं हुसिवर शूलं निगलंक मल्लनसु हृत् सेल्ल गण्डर दावणि सुभट शिरोमणि इत्यखिल नामावली समालंकृतनप्प वाप्प देव........बलिय बाडं तलवेयं त्रिभोगाभ्यन्तर विशुद्धियि सर्व बाधा परिहारं सर्व नमश्यवागि परिकल्पिसिदुदं शक वर्ष नुर नाल्कनेय........सुद्ध पंचमी बुधवारदन्दा रत्नत्रय देवरभिषेकाचंग भोग रंग भोगक्कं ऋषियराहार दानक्कं विद्यार्थिगल........बसदि पेस ........खण्ड स्पु (स्फो) टित जीर्णोद्धारक्कवेन्दु प्रा श्रीमन्मूल संघद काणूर ग्गणद तिन्त्रिक गच्छद नुन्न वंशद श्रीमद् भानुकीति सिद्धान्त.........को?........." महाप्रधानं कृत जयाकर्षण विधानं धनुविद्या धनंजय नाकणित रण रभस भीत भू .............."द विद्याधरं काव्य कला धरनेनिप मुरारि केशद देवंगे धर्म प्रतिपालनमं समर्पिसिदनातनं प्रभावमेन्तेन्दोडे ।' इसमें रत्नत्रय देव वसदि और रत्नत्रय देव के अभिषेक अंग भोग रंग भोग और वहां रहने वाले मुनियों के और विद्यार्थियों के आहार आदि को व्यवस्था हेतु मूल संघ क्राणूरगणतिन्त्रिणीक गच्छ नुन्नवंश के प्राचार्य भानुकीत्ति सिद्धान्तदेव को दान किये जाने का स्पष्ट उल्लेख है । इससे "रत्नत्रयं पूजयन्ति" इस उपर्युल्लिखित उल्लेख की पुष्टि होती है कि यापनीय संघ में रत्नत्रय (सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र) देव की पूजा किये जाने का पूर्व काल में प्रचलन था। इस लेख में रत्नत्रय देव मन्दिर के जीर्णोद्धार का भी इस. दान के कारण के रूप में उल्लेख होने से यह स्वतः ही सिद्ध हो जाता है कि शक सम्वत् (१) १०४ तदनुसार ईस्वी सन् (१) १८२ में जिस वक्त यह दान दिया गया, यह रत्नत्रय देव का मन्दिर अथवा बसदि का भवन अति प्राचीन होने के कारण जीर्ण शीर्ण हो चुका था। रत्नत्रय देव की बसदि के अति प्राचीन और जीर्ण शीर्ण होने के उल्लेख से भी यह अनुमान किया जाता है कि यापनीय परम्परा में प्रारम्भिक काल में तीर्थंकरों की मूत्ति के स्थान पर रत्नत्रय देव की पूजा की परिपाटी प्रचलित थी। १. जैन शिलालेख संग्रह लेख सं० ४०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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