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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ चूरिणकारों,' परिरिशिष्ट पर्वकारों और पट्टावलीकारों द्वारा स्थान-स्थान पर मूर्तिपूजा और जिनमन्दिर निर्माण के उल्लेखों के साथ-साथ खारवेल के सिंहासनारूढ़ होने से केवल २३ वर्ष पूर्व स्वर्गस्थ हुए सम्प्रति द्वारा स्थान-स्थान पर जिनमन्दिरों के निर्माण करवाये जाने और त्रिखण्ड की भूमि को जिनमन्दिरों से मण्डित कर दिये जाने के अनेकश: उल्लेख किये गये हैं।
वीर नि. सं. ३१६ से वीर नि. सं. ३२६ तक एक परम धर्मनिष्ठ जैन राजा के राज्यकाल में किये गये धर्मकार्यों एवं अन्यान्य प्रमुख कार्यों के विवरण में मूर्तिपूजा का, मन्दिर निर्माण का, रथयात्रा का, रथ पर पुष्पवर्षा का, रथ के आगे अनेक प्रकार के फलों, विविध खाद्य पदार्थों, कौड़ियों एवं वस्त्र आदि की उछाल का कोई उल्लेख नहीं और उस लेख से ८०० से लेकर १८०० वर्ष पश्चात् लिखे गये ग्रन्थों में मूर्तिपूजा, मन्दिर निर्माण रथयात्रा आदि के उत्तरोत्तर अतिरंजित अभिवृद्धि के साथ उल्लेख हैं, यह एक इस प्रकार की स्थिति है जो सर्वसाधारण को हठात् बड़े असमंजस में डाल देने के साथ तत्वजिज्ञासुनों, तथ्य के गवेषकों एवं इतिहास में अभिरुचि रखने वाले विज्ञों के मन-मस्तिष्क में विचार-मन्थन उत्पन्न कर देती है।
यह तो एक सर्वसम्मत निर्विवाद सत्य है कि वीर निवारण के पश्चात् ३२९ (३१६ से ३२६ तक खारवेल का शासनकाल) मे ३७६ (हाथीगुफा के शिलालेख के उटेंकन का अनुमानित काल) वर्ष की अवधि के बीच जो तथ्य शिला पर उकित किये गये हैं, वे वीर नि० सं० ११००, १२००, १७०० और २११६ में निबद्ध किये गये भाष्य, चरिण, परिशिष्टपर्व, तपागच्छ पट्टावली आदि ग्रन्थों के उल्लेखों की अपेक्षा निश्चित रूपेरण अधिक प्रामाणिक एवं परम विश्वसनीय और तथ्यपरक हैं।
___ इन सब तथ्यों से अनुमान किया जाता है कि मूर्तिपूजा का प्रचलन चैत्यवासी परम्परा और यापनीय परम्परा ने कालान्तर में प्रारम्भ किया। ऐसा प्रतीत होता है कि रत्नत्रयदेव की पूजा के अनन्तर यापनीय परम्परा ने चरणचिन्हों की पूजा का और तदनन्तर मूर्तिपूजा एवं मन्दिर निर्मागा आदि का प्रचलन किया।
अणुजाग रह जत्ता नमु मो राया प्रजागति भडच डगमहितो रहेगा मह हिंडति, रहेम पुकारूहग करेंति, रहगतो य विविध फले खज्जगे य कबड्डग बत्थमादी य उकवीरगे करेंति, अन्नेमि च चेइयघरठियागगं वेड्या पूयं करेंति, ते वि य रायागो एवं चेव मर. ज्जेमु कारवति ।। ५७४७ की रिण .
--वही निशीथाणि । येन सम्प्रतिना विखण्ड मितापि महि जिनप्रामादमण्डिता विहिता । तपागच्छ पट्टा व नी । रचनाकाल वीर निर्वाग मम्वत् २११६ तदनुमार वि० सं० १६४६
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