SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यापनीय परम्परा ] [ २३७ अथवा मूर्ति की पूजा का कहीं नाममात्र के लिए भी उल्लेख नहीं है । इस अभिलेख में कलिंगपति महामेघवाहन खारवेल को प्रजा के क्षेम-कुशल के लिये सदा सतत निरत रहने के कारण 'क्षेमराज,' राज्य, राजकोष और प्रजा की सुख समृद्धि में मदा अभिवृद्धि करते रहने के कारण बर्द्ध राज, भिक्षों ,--जैन श्रमणों का परम भक्त रहने के कारण भिक्षुराज और मगधराज पुष्यमित्र के अत्याचारों से जैन धर्म की अथवा जैनधर्मावलम्बियों की रक्षा करने के कारण धर्मराज को विशिष्ट उपाधियों से विभूषित किया गया है। जिस प्रकार प्रगाढ़ विष्णुभक्ति के परिणामस्वरूप हिन्दु वैष्णव परम्परा के पुराणों में महाराज अम्बरीष को परम भागवत के पद से विभूषित किया गया है, उसी प्रकार कलिंगपति खारवेल को भी उनकी उत्कट अर्हतभक्ति को देखते हुए यदि परमाहत पद से विभूषित किया जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस प्रकार के परमार्हत् जिन शासनसेवा आदि धार्मिक कार्य-कलापों में अत्यधिक रुचि रखने वाला महाराजा खारवेल अपने तेरह वर्षों के शासनकाल में राजप्रासादों, नगरद्वारों, नगर प्राकार, फव्वारों, तालों, बान्धों, बाग-बगीचों, उपवनों का जीर्णोद्धार, पुननिर्माण, संस्कार तो करवाये, नृत्यगीत, वाद्य, नाटक, उत्सव, संगोष्ठियों का आयोजन कर नगरनिवासियों का मनोरंजन करे, राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान के पश्चात् अनेक प्रकार के जनकल्याणकारी कार्य करे, ब्राह्मणों को विपुलतर महार्ध य चल-अचल सम्पत्ति का दान करे, अड़तीस लाख मुद्राओं के व्यय से महाविजय प्रासाद का निर्माण करवाये, केतुभद्र यक्ष की तिक्त काष्ठ से बनी अति विशालकाय मूर्ति को नगर में महोत्सवपूर्वक निकाले, अर्हत निषद्मा (अर्हत् समाधि) पर याप-जापकों द्वारा प्राणिमात्र के कुशल क्षेम के लिए जाप करवाये । याप-जापकों को राजभृत्तियां प्रदान कर उन्हें उसी प्रकार जप जाप में निरत रहने को प्राजा दे और अपनी पट्टमंहिषी घष्टि के लिए अर्हत समाधि के पास हो पचहत्तर लाख मुद्राएं व्यय कर रन्नजटित स्तम्भों वाला अतिरमणीय अतिविशाल विधामागार बनवाये पर एक भी मुति की प्रतिष्ठा न करे, एक भी मन्दिर का निर्माण अथवा जीर्णोद्धार न करे, किमी जिनमूर्ति अथवा जिनमन्दिर की पूजा प्रादि के लिए एक भी राजभृति प्रदान न करे तो इसमे यही सिद्ध होता है कि खारवेल के शासनकाल तक जैन धर्म में मूतिपूजा और मन्दिर-निर्माण का न केवल प्रचलन ही नहीं हरा था अपितु मूर्तिपूजा के लिये धर्मकृत्यों में विधिविधान न होने के कारण किसी भी जैनधर्मावलम्बी के मन, मस्तिष्क एवं हृदय में इनके लिये कोई स्थान भी नहीं था। यदि खारवेल के शासनकाल तक जैन धर्मावलम्बियों में मूर्तिपूजा का प्रचलन हो गया होता, तो जहां खारवेल ने सुविहित परम्परा के श्रमणों के लिए संघायन का निर्माण करवाया, अर्हत-समाधि (निषद्या) पर क्षेम-कुशल हेतु जप-जाप करने वालों के लिए राजभृत्तियां प्रदान की, महारानी के लिये यदा कदा उस रमणीय पवित्र पर्वत पर आगमन के अवसरों पर विश्राम हेतु अर्हत् समाधि स्थल के समीप भव्य विश्रामागार बनवाया उसी प्रकार वहां वे एक न एक जिन मन्दिर का निर्माण एवं मूर्ति की प्रतिष्ठा अवश्य करवाते और उनकी नियमित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy