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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ पूजा जप जाप में निरत रहने का आदेश दिया । उपासक अर्थात् श्रमणोपासक श्री खारवेल ने जीब और देह के भेद को परखा ।' .
(१५वीं पंक्ति)........सुकृति (स्व-पर-कल्याणकारी कार्यों में निरत रहने वाले) शास्त्रनेत्र (धारक) ज्ञानी अथवा ज्ञात (ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर की शिष्य परम्परा के) तपस्वी ऋषि सुबिहित श्रमणों के लिये संघायन (एकत्र होने का भवन) बनाया। अर्हत् निषद्या (अर्हत की समाधि) के पास अनेक योजनों की दूरी से लाई गई, श्रेष्ठ खदानों से निकाली गई भारी भरकम शिलानों से अपनी सिंहप्रस्थी रानी घुसियावृष्टि के लिये विश्रामागार
(१६वीं पंक्ति)........ पाटालिकाओं में वैडर्यजटित ऊंचे स्तम्भों को पचहत्तर लाख पणों (मुद्राओं) के व्यय से प्रतिष्ठापित किया । मौर्य संवत्सर १६४ व्यतीत' होते-होते यह (शिलालेख) उटैंकित करवाया जाता है ।
वह क्षेमराज, वह बर्द्ध राज, वह भिक्षुराज और धर्मराज कल्याणों को देखता हुआ, सुनता हुआ एवं अनुभव करता हुआ
(१७वीं पंक्ति)........गुणविशिष्ट कुशल, सब धर्मों का आदर करने वाला, सभी देवायतनों का संस्कार कराने वाला, अप्रतिहत रथसेना, हस्त्यारोही सेना, अश्वारोही सेना और पदातिसेना बाला, चक्रघुर (सेना में सबसे आगे-रहने वाला), सेना का संरक्षक, जिसकी सेना सदा विजय में प्रवृत्त रही, जो राजर्षि कुल में उत्पन्न हुमा, ऐसा वहाविजयी राजा था श्री खारवेल ।
हाथीगुंफा में वीर नि. सं. ३७६ में उम्र कित करवाये गये सर्वाधिक प्राचीन और सबसे बड़े जैन शिलालेख में वीर नि.सं. ३१६-१७ से ३२६ तक के अपने राज्यकाल में महामेघवाहन खारवेल द्वारा किये गये सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों का काल बद्ध विवरण दिया गया है। इस पूरे अभिलेख में एक भी नये जिन मन्दिर के निर्माण का, किसी एक भी प्राचीन जिनमन्दिर के जीर्णोद्धार का, मूर्ति की प्रतिष्ठा का १. जीव-देह सिरिका परिखिता "इस पद की संस्कृत छाया जीव-देह श्रीका परिक्षिता"
होती है । इसका अर्थ है जीव और देह के भेद को समझा । सिरि अर्थात् श्री का एक अर्थ प्रकार और भेद भी होता है (पाइय सद्दमहण्णवो) यहां सिरिका शब्द भेद अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। अशोक ने कलिंग विजय के पश्चात् समस्त कलिंग राज्य में भी मौर्य सम्वत् का प्रचलन किया था, जैसा कि अप्रकाशित हिमवन्त स्थविरावली में लिखा है :
"तयणंतरं वीरानो दोसयाहिय अउरणचत्तालि वासेसु विइक्कतेसु मगहा हिवो असोग गिवो कलिंग जणवयमाकम्म खेमराजं रिणवं रिणयारणं मन्नाबेइ । तत्थ णं से रिणय गुत्त (गोत्र मौर्य) संवच्छरं पबत्तावेइ ।"
हिमवन्त स्थबिराबली की हस्तलिखित प्रति प्राचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञानभण्डार, लाल भवन, चौड़ा रास्ता, जयपुर के संग्रह में है।
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