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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
प्रागमवाचना के समय देवद्धिक्षमाश्रमण को समस्त प्रागमों को पुस्तकारूढ़ करने के लिये वीर नि० सं० १८० से ९६४ तक अर्थात् लगभग १४-१५ वर्षों तक वल्लभी में रहना पड़ा, उसी प्रकार प्रार्य स्कन्दिल भी वीर नि० सं० ८३० से ८४० तक मागम वाचना को सम्पन्न करने के लिए मथुरा में रहे। यदि जैनसंघ में सर्वसम्मत रूप से मूर्तिपूजा का प्रचलन हो गया होता तो प्रार्य स्कन्दिल जैसे युगप्रवर्तक एवं श्र तशास्त्र की रक्षा करने वाले महान् प्राचार्य के १० वर्ष तक मथुरा में ही रहने की अवधि में निश्चित रूप से अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा और जिन मन्दिरों का निर्माण उनके तत्वावधान में हुआ होता। पर स्थिति इससे बिल्कुल भिन्न है। उस अवधि की बात तो दूर, उस पूरे शतक में एक भी जिनमूर्ति अथवा जिनमन्दिर के निर्माण का उल्लेख कहीं नहीं मिलता।
प्रार्य स्कन्दिल का नाम जैन इतिहास में अमर रहेगा। श्रत शास्त्र की रक्षा कर उन्होंने संसार पर अविस्मरणीय अनुपम उपकार किया है । श्वेताम्बर परम्परा के सभी गणों, गच्छों एवं सम्प्रदायों के अनुयायी सर्वसम्मत रूप से समवेत स्वर में उन्हें अपना महान् उपकारी पूर्वाचार्य मानते हैं। देवद्धि गणि क्षमाश्रमण ने भी नन्दिसूत्र के प्रादि मंगल में आपको प्रगाढ़ श्रद्धापूर्वक निम्नलिखित भावभरे शब्दों में वन्दन किया है :
जेसिमिमो अणुप्रोगो, पयरइ अज्जावि अड्ढभरहम्मि । बहुनगर निग्गयजसे, ते वंदे खंदिलायरिए ॥३३।।
इसी प्रकार एक अज्ञातकर्तक प्राचीन गाथा में भी आर्य स्कन्दिलाचार्य द्वारा की गई श्रुतरमा का उल्लेख उपलब्ध होता है । वह प्राचीन गाथा इस प्रकार है:
दुभिक्खंमि पणठे, पुणरवि मिलिय समणसंघाप्रो । मिहुराए अरणुप्रोगो पवइयो खंदिलो सूरि ।।
अपने युग के लोकपूज्य, महान् अनुयोगप्रवर्तक, प्रागम मर्मज्ञ, श्रुतशास्त्र के रक्षक प्राचार्य स्कन्दिल के मानस में यदि जिनमन्दिर निर्माण अथवा मूर्तिपूजा के प्रति किंचित्मात्र भी स्थान अथवा आकर्षण होता तो उनके एक ही परोक्ष इंगित पर दश वर्ष के उनके मथुरावास काल में सहस्रों जिनमूर्तियों और सैकड़ों जिनमन्दिरों का निर्माण हो जाता और कंकाली टीले की खुदाई में अथवा मथुरा के विभिन्न स्थलों में पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाइयों में उन मूर्तियों एवं मन्दिरों के अथवा शिलालेखों के अवशेष न्यनाधिक मात्रा में अवश्यमेव पुरातत्व विभाग को प्राप्त होते । पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । कंकाली देवी का मन्दिर पोर जैन बौद्व स्तूप प्राचार्य स्कन्दिल के मथुरा प्रवास से पहले ही भूलु ठित हो कंकाली टीले का रूप धारण कर गये हों, इस प्रकार की आशंका को भी वहां से प्राप्त ऐतिहासिक
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