________________
यापनीय परम्परा ]
[ २३१ प्राचार्य भद्रबाह को संघादेश शिरोधार्य कर उन साधनों को पूर्वो की वाचना देना प्रारम्भ करना पड़ा । महामुनि स्थूलभद्र के अतिरिक्त शेष सब मुनि पूर्वो की वाचना लेने में असमर्थ रहे। स्थूलभद्र ने लगभग ८ पूर्वो की याचना नेपाल में रहते हुए प्राचार्य भद्रबाहु से ली और नौवें तथा दशवें पूर्व की वाचना नेपाल से पाटलिपुत्र की ओर भद्रबाह के विहार काल में तथा पाटलिपुत्र में लो। दश पूर्वो की वाचना पूर्ण होने पर दर्शनार्थ आई हुई अपनी बहिनों-महासाध्वी यक्षा एवं यक्षदिन्ना को मुनि स्थूलभद्र ने अपनी विद्या का चमत्कार बताया। इस घटना के परिणामस्वरूप प्राचार्य भद्रबाहु ने महामुनि स्थूलभद्र जैसे सुपात्र शिष्य को भी अन्तिम चार पूर्वो के ज्ञान के लिये अपात्र घोषित कर दिया। संघ द्वारा अनुनय-विनयपूर्ण अनुरोध करने पर उन्होंने महामुनि स्थूलभद्र को अन्तिम चार पूर्वो की केवल मूल पाठ की ही वाचना दी अर्थसहित वाचना फिर भी नहीं थी।
प्रथम प्रागमवाचना की इस ऐतिहासिक घटना से दो तथ्य प्रकाश में आते हैं । प्रथम तो यह कि उक्त प्रथम आगमवाचना में प्रागमों के परम्परागत पाठों को जिस प्रकार यथावस्थित रूप में व्यवस्थित किया गया था, उसी रूप में वे मागमपाठ समय-समय पर हुई दूसरी, तीसरी और चौथी आगम वाचनाओं में व्यवस्थित किये जाते रहे । और दूसरा यह तथ्य प्रकाश में आता है कि प्रथम आगमवाचना के समय तक भी जैन धर्मसंघ में मूर्तिपूजा का प्रचलन नहीं हरा था। यदि उस समय मूर्ति पूजा का प्रचलन हो गया होता तो उस काल की मूर्तियां, मन्दिर अथवा उनके अवशेष अवश्यमेव ही कहीं न कहीं उपलब्ध होते ।
६. द्वितीय आगमवाचना वीर नि० सं० ३२६ में कलिंगराज महामेघवाहन खारवेल के प्रयास से कुमारीपर्वत पर हई। उस प्रागमवाचना सम्बन्धी उपलब्ध प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों से भी यही प्रकट होता है कि वीर नि० सं० ३२६ तक भी जनसंघ में मूर्तिपूजा का अथवा मन्दिर निर्माण का प्रचलन नहीं हुआ था। उस आगम वाचना के अनन्तर कुमारी पर्वत पर ग्यारवेल महामेघवाहन द्वारा मुविहित परम्परा के श्रमणों के संघहित के कार्यों पर विचार-विमर्श करने हेतु एकत्र होने और बैठने के लिये एक संघायन के निर्माण का, निषद्या पर जाप की व्यवस्था करने का, यापकों की भृति निश्चित करने का तथा महारानी के लिये कुमारी पर्वत पर निषद्या के पास एक विशाल एवं भव्य विश्रामभवन बनवाये जाने का तो उल्लेख उपलब्ध होता है किन्तु किसी मूर्ति की स्थापना करने का, पूजा करने का अथवा मन्दिर के निर्माण का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता।'
१०. तीसरी पागमवाचना वीर नि० सं० ८३० में इकवीसवें वाचनाचार्य प्रार्य स्कन्दिल के तत्वावधान में मथुरा में हुई और जिस प्रकार चौथी अन्तिम . हाथीगुफा में उपलब्ध कलिंगराज महामेषवाहन वाग्वेल के शिलालेख की पंकि
मं• १५ और १६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org