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________________ २३० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ के रूप में मूर्तिपूजा का कहीं कोई उल्लेख नहीं है, इससे यही फलित होता है कि सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान् महावीर ने अपनी किसी भी देशना में मूर्तिपूजा करने अथवा मन्दिर निर्माण करने का उपदेश नहीं दिया । ७. जैनधर्म अथवा आगम सम्बन्धी निर्वाणोत्तरकालीन प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं पर भी यदि निष्पक्ष रूपेण दृष्टिपात किया जाय तो यही तथ्य प्रकाश में आता है कि पहली आगमवाचना के समय से लेकर चौथी श्रागमवाचना तक की कालावधि में आगमानुसार विशुद्ध श्रमणाचार, श्रावकाचार एवं धर्म के मूल अध्यात्मप्रधान स्वरूप का पालन करने वाले जैन संघ में मूर्तिपूजा एवं मन्दिरादि के निर्मारण का प्रचलन नहीं हुआ था । ८. पहली आगम वाचना वीर नि० सं० १६० के आस-पास श्रार्य स्थूलभद्र के तत्वावधान में पाटलीपुत्र में हुई । इस पहली आगमवाचना के सम्बन्ध में जैन वाङमय में कोई क्रमबद्ध विस्तृत विवरण वर्तमान काल में उपलब्ध नहीं होता । "तित्थोगालीपइन्नय" नामक प्राचीन ग्रन्थ में प्रति संक्षेपतः केवल इतना ही विवरण उपलब्ध होता है कि भीषरण दुष्काल के समाप्त हो जाने पर भारत के सुदूरस्थ विभिन्न भागों में गये हुए साधु पुनः पाटलिपुत्र में लौटे। दुष्कालजन्य संकटकालीन स्थिति में शास्त्रों के अनभ्यास के परिणामस्वरूप श्रुत परम्परा से कण्ठस्थ शास्त्रों के जिन पाठों को श्रमरण भूल गये थे, उन पाठों को परस्पर एक दूसरे से सुनकर उन्होंने शास्त्रों के ज्ञान को पुनः व्यवस्थित किया । पाटलिपुत्र में हुई इस प्रथम आगम वाचना में एकादशांगी को पूर्ववत् व्यवस्थित एवं सुरक्षित कर लिया गया किन्तु बारहवें श्रंग दृष्टिवाद को व्यवस्थित करने में वह श्रमरणसंघ पूर्णरूपेण असफल ही रहा, जो कि पाटलिपुत्र में एकत्रित हुआ था उस समय समस्त श्रमण संघ में चौदह पूर्वो के ज्ञान के धारक एक मात्र अन्तिम श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु हो अवशिष्ट रह गये थे, परन्तु वे उस समय नेपाल प्रदेश में महाप्राण ध्यान की साधना में निरत थे । । इस प्रकार की स्थिति में बड़े विचार विनिमय के अनन्तर महा-मेघाव युवावय के श्रमण स्थूलभद्र को ५०० अन्य मेघावी मुनियों के साथ भद्रबाहु की मेवा में रहकर चतुर्दश पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करने और इस प्रकार श्रुतज्ञान की रक्षा करने के हेतु संघादेश से नेपाल भेजा गया । ग्राचार्य भद्रबाहु उस समय उस ग्रद्भुत चमत्कारी महाप्रारण की साधना में निरत थे, जिसकी साधना के अनन्तर माधक अन्तर्मुहूर्त में ही सम्पूर्ण द्वादशांगी का परावर्तन ( पुनरावर्तन) करने में समर्थ हो जाता है ।" इस प्रकार की महती साधना में निरत रहने के उपरान्त भी १ यह कोई ग्रमम्भव अथवा असाध्य नहीं. दुस्साध्य ग्रवश्य है क्योंकि स्वप्नशास्त्रियों के अभिमतानुसार लम्बे से लम्बा स्वप्न वस्तुतः कतिपय इने-गिने क्षणों का ही होता है । सुशुप्त्यवस्था ឆ कुछ ही क्षणों के स्वप्न में प्रारणी वर्षो में देखे जा सकने वाले दृश्य | देख लेता है. इससे ग्रतुमान किया जाता है कि महाप्राण ध्यान में यह गंभव हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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