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________________ यापनीय परम्परा ] [ २२६ जिनमन्दिर के निर्माण कराये जाने का कहीं कोई नाममात्र के लिये भी उल्लेख नहीं है। ५. मूल आगमों में त्रिकालदर्शी प्रभु महावीर ने आदर्श श्रावकों के घरों की भौतिक विपुल ऋद्धि-सिद्धि का भी वर्णन किया है, अनेक नगरों का वर्णन किया है पर इन वर्णनों में जिन प्रतिमा और जिनमन्दिर का कहीं नामोल्लेख तक नहीं है । यदि उस समय जैन धर्म की मूल परम्परा में मूर्तिपूजा का कोई स्थान होता तो उन आदर्श श्रावकों के घरों में अथवा नगरों के प्रांगणों में कहीं न कहीं तो जिनमन्दिर अथवा जिनप्रतिमा के अस्तित्व का उल्लेख अवश्य ही होता। जिनप्रतिमा की पूजा की बात तो दूर वस्तुतः श्रावकों के घरों और नगरों तक में जिनमन्दिरों-जिनप्रतिमाओं के अस्तित्व तक का उल्लेख नहीं है। इससे यही प्रमाणित होता है कि जैन धर्म की मूल परम्परा में प्रारम्भ में मूर्तिपूजा के लिये कहीं कोई स्थान नहीं था। जैनधर्म का तीर्थप्रवर्तनकाल में कैसा स्वरूप था, उस समय जैन धर्म में क्या मान्य था और क्या अमान्य, क्या-क्या करणीय था और क्या-क्या प्रकरणीय, एतद्विषयक तथ्य आगमों से ही प्राप्त किये जा सकते हैं। जिस प्रकार कि हीरा हीरे की खान से ही उपलब्ध हो सकता है, पन्ने अथवा मारिणक्य की खान से नहीं। ठीक उसी प्रकार जैनधर्म की मान्यताओं अथवा जैन धर्म के मूल विशुद्ध स्वरूप के सम्बन्ध में प्रामाणित तथ्य जैन आगमों से ही उपलब्ध हो सकते हैं न कि अन्य ग्रन्थों अथवा साहित्य से । ६. जैनागम वस्तुतः भगवान महावीर की देशनात्रों के आधार पर गणघरों द्वारा ग्रथित किये गये, यह एक निर्विवाद एवं सर्वसम्मत तथ्य है । मूल आगमों में, आचारांग आदि ११ अंगशास्त्र जो 'निग्गंठ पावयण' 'गणिपिटक' आदि नामों से विख्यात हैं और जो जैनधर्म के सिद्धान्तों, जैनधर्म की मान्यताओं के परम प्रामारिणक, मूल आधार माने जाते हैं, उनमें मूर्तिपूजा का, जिनमन्दिरों का निर्माण का जब कहीं नामोल्लेख तक नहीं है तो इसका सीधा सा अर्थ यही होता है कि तीर्थकर भगवान् महावीर ने अपनी प्रथम देशना से लेकर अन्तिम देशना तक में जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठापना करने, मन्दिर निर्माण करने और जिनप्रतिमा की पूजा करने के सम्बन्ध में कभी एक भी शब्द अपने मुखारविन्द से नहीं कहा । इस बात से तो प्रत्येक जैन पूर्णत: सहमत होगा कि वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर प्रभू श्रमण भगवान् महावीर की देशनाओं का एक-एक शब्द सभी जैनों के लिये सदा शिरोधार्य और परम मान्य है। यदि संसार के भव्य प्राणियों के लिये जिन-प्रतिमा की पूजा करना निःश्रेयस्कर होता तो "जगजीव हियदयट्ठयाए" चतुर्विध धर्मतीर्थ की स्थापना करते समय साधु, साध्वी, श्रावक अथवा श्राविका वर्ग में से सभी के लिये अथवा किसी वर्ग विशेष के लिये जिन-प्रतिमा की पूजा का भी स्पष्ट शब्दों में उसी प्रकार विस्तृत रूप से उपदेश देते जिस प्रकार कि मुक्ति प्राप्ति के लिये परमावश्यक अन्यान्य कर्तव्यों का उपदेश दिया था। प्रागमों में चतुर्विध तीर्थ के कर्तव्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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