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| जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष के स्वरूप से अवगत थे । देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व महोरग आदि तक उन्हें निर्ग्रन्थ प्रवचन से नहीं डिगा सकते थे। निर्ग्रन्थ प्रवचन में वे शंकारहित, आकांक्षारहित और विचिकित्सारहित थे। शास्त्र के अर्थ को उन्होंने ग्रहण किया था, अभिगत किया था और समझबूझ कर उसका निश्चय किया था। निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति उनके रोम-रोम में प्रेम व्याप्त था। वे केवल एक निर्ग्रन्थ प्रवचन के अतिरिक्त शेष सबको निष्प्रयोजन मानते थे। उनकी उदारता के कारण उनके द्वार सदा सब के लिये खुले रहते थे। वे जिस किसी के घर अथवा अन्तःपुर में जाते वहां प्रीति ही उत्पन्न करते । शीलवत, गुरगवत, विरमरण, प्रत्याख्यान, पौषध एवं उपवासों के द्वारा चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी के दिन वे पूर्ण पौषध का पालन करते । श्रमरण निर्ग्रन्थों को प्रासुक एवं कल्पनीय अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन (रजोहरण); आसन, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज से प्रतिलाभित करते हुए वे यथाप्रतिगृहीत तप कर्म द्वारा आत्मध्यान में लीन हो विचरण करते रहते थे।
उपयुद्ध त इस पाठ में तुगियानगरी के उन आदर्श श्रमणोपासकों की दिनचर्या की प्रत्येक धार्मिक क्रिया का विशद् विवरण दिया हुआ है किन्तु मूर्तिपूजा अथवा जिनमन्दिर का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। "जिन प्रतिमा जिन सारिखी (सदृशी)" जैसी मान्यता का जैनधर्म में यदि उस समय किचितमात्र भी स्थान होता तो संसार के समस्त जीवों पर करुणा कर उनके हित के लिये सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमण भगवान महावीर द्वारा तीर्थप्रवर्तनकाल में दिये गये अमोघ उपदेशों के आधार पर गणधरों द्वारा ग्रथित जैनागमों में मूर्तिपूजा, मन्दिर निर्माण आदि का साधु-साध्वी वर्ग के लिये न सही किन्तु श्रावक-श्राविका वर्ग के लिये तो अवश्यमेव आवश्यक कर्तव्य के रूप में उल्लेख होता ।
४. मलागमों में आनन्द, कामदेव, शंख, पोखली, उदायन आदि श्रावकरत्नों के पौषधोपवासों, श्रावक की एकादश प्रतिमारूप कठोर व्रत धारणा, सुपात्रदान, पौषधशालागमन आदि विभिन्न धर्मकृत्यों का विस्तृत विवरण है किन्तु कहीं पर भी यह उल्लेख नहीं है कि वे एक बार भी किसी देवमन्दिर में गये हों अथवा उनके द्वारा किसी जिन-प्रतिमा की स्थापना या पूजा की गई हो ।
मूल आगमों में श्री कृष्णं द्वारा की गई धर्म-दलाली एवं उस उत्कृष्ट धर्मदलाली के परिणामस्वरूप तीर्थंकर नामगोत्रोपार्जन का उल्लेख है। इसी तरह मगध सम्राट् बिम्बसार श्रेणिक द्वारा अमारी पटह-घोषणा एवं धर्मदलाली का तथा उस धर्मदलाली के फलस्वरूप उनके भी तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म के उपार्जन का पाठ पाया है। साथ ही प्रदेशी राजा द्वारा दानशाला खोलने आदि सुकत्यों का स्पष्ट रूप से उल्लेख है । परन्तु इनमें से किसी के भी द्वारा जिनप्रतिमा की पूजा करने अथवा
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