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________________ यापनीय परम्परा ] [ २२७ २. पांचवें अंगशास्त्र भगवती सूत्र ( व्याख्या प्रज्ञप्ति ) में गरणधर इन्द्रभूति द्वारा पूछे गये ३६,००० प्रश्नों एवं भगवान् महावीर द्वारा दिये गये उत्तरों का विशद् वर्णन है । आध्यात्मिक अभ्युत्थान से सम्बन्ध रखने वाला एक भी विषय इन प्रश्नोत्तरों में अछूता नहीं रहा है । श्रात्मोन्नति विषयक सभी तथ्यातथ्यों का विवेचन इन प्रश्नोत्तरों में समाविष्ट है । इस तरह सभी प्रकार की जिज्ञासाओं का शमन एवं सन्देहों का निवारण करने वाले उन ३६ हजार प्रश्नोत्तरों में कहीं एक में भी जिनमन्दिर के निर्माण, उसके अस्तित्व अथवा जिनमूर्ति की पूजा का कोई उल्लेख नहीं है । ३. भगवती सूत्र के दूसरे शतक में तुंगिया नगरी के श्रमरणोपासकों के सुसमृद्ध जीवन, उनकी धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रास्था, उनके धार्मिक कार्यकलापों श्रादि का विशद् वर्णन किया गया है। उसमें भी जिनमन्दिर अथवा जिनमूर्ति की पूजा का कहीं नामोल्लेख तक नहीं है । भगवती सूत्र में एतद्विषयक विवरण निम्नलिखित रूप में है : "तत्थ गं तुंगियाए नयरीए बहवे समरणोवासया परिवसति श्रड्ढा, दित्ता, वित्थिन्न विपुल भवरण सयरणासरण - जारण- वाहरणइण्णा बहुधरण बहुजायरूव-रयया, प्रयोग-पयोगसंपत्ता, विच्छ ड्डियविपुल - भत्तपारण, बहुदासीदास गो-महिस- गवेलयप्पभूया, बहुजणस्स अपरिभूया, अभिगयजीवाजीवा, उवलद्धपुण्णपावा, आसव-संवरनिज्जर - किरिया - श्रहिकरण-बंध- मोक्खकुसला, असहेज्जं देवासुरनाग - सुवण जक्खरक्खस- किन्नर - किंपुरिस - गरुल गंधव्व-महोरगाइएहि देवगणेहिं निग्गंथानी पावयरणाश्रो श्ररणतिक्कमरिगज्जा, णिग्गंथे पावयणे निस्संकिया निक्कंखिया, निविति गिच्छा, लट्ठा, गहियट्ठा, पुच्छियट्ठा, अभिगयट्ठा, विरिणच्छियट्ठा, प्रट्ट्ठमिजपेमा–अगूरागरत्ता, अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अट्ठे, अयं परमट्ठे से से अरणट्ठे, असियफलिहा, अवगुयदुवारा, चियत्तंतेउरघरप्पवेसा, बहूहिं सीलव्वय- गुरण- वेरमण-पच्चक्खाणपोसहोववासेहिं चाउद्दट्ठमुदिट्ठ – पुण्णमासिणीसु परिपुष्णं पोसहं सम्म अणुपालेमारणा, समरणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेरणं असणपाणखाइम - साइमेणं, वत्थपडिग्ग्रह - कंबल - पायपुंछरणं, पीठ - फलग — सेज्जासंथारएणं, प्रोसह - भेसज्जेणं पडिला मारणा महापडिग्गहिएहि तवोकम्मेहिं प्रप्पारणं भावेमारणा विहरति ।" अर्थात् - तु' गिया नगरी में बहुत से श्रमणोपासक रहते थे । वे धनसम्पन्न और वैभवशाली थे । उनके भवन बड़े विशाल एवं विस्तीर्ण थे । वे शयन, आसन, यान, वाहन से सम्पन्न थे । उनके पास विपुल धन, चांदी तथा सोना था । वे रुपया ब्याज पर देकर बहुत सा धन अर्जित करते थे । वे अनेक कलानों में निपुण थे । उन श्रमणोपासकों के घरों में अनेक प्रकार के भोजन-पान आदि तैयार किये जाते थे । वे लोग अनेक दास-दासियों, गायों, भैंसों, एवं भेड़ों आदि से समृद्ध थे । वे जीव-जीव के स्वरूप को एवं पुण्य और पाप को सम्यक्रूपेण जानते थे । वे 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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