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________________ २२६ ] . . . [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ अध्याय के पिछले पृष्ठों पर विशद रूपेण प्रकाश डाला जा चुका है । इससे यही अनुमान लगाया जाता है कि यापनीय परम्परा के अज्ञातनामा प्राचार्यों ने ही संभवतः सर्वप्रथम तीर्थंकरों के चरणयुगल की पूजा, उससे पूर्व अथवा पश्चात् श्र तसागरसूरि के उपरि उद्ध त-"रत्नत्रयं पूजयन्ति (यापनीयाः)" इस उल्लेख के अनुसार 'रत्नत्रयदेव' की पूजा और अन्ततोगत्वा कालान्तर में किसी समय मूर्तिपूजा प्रारम्भ की हो। जहां तक यापनीयों की प्रारम्भिक मूल मान्यताओं का प्रश्न है वर्तमान में यद्यपि इस परम्परा की प्रथ से इति तक की सम्पूर्ण मान्यताओं का स्रोत "यापनीय तन्त्र" नामक विशाल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हो रहा है, तथापि मोटे रूप में यही कहा जा सकता है कि प्राचारांग सूत्र से लेकर दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, व्यवहार कल्प आदि तक जितने भी जैनागम प्राज उपलब्ध हैं, उन आगमों में उल्लिखित मान्यताएं ही इस संघ की मूल मान्यताएं थीं। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य सभी आगमों को यापनीय संघ परम प्रामाणिक मानता था-इस तथ्य को स्वीकार करने में किसी भी निष्पक्ष विचारक को किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिये। स्वयं यापनीय संघ के प्राचार्यों द्वारा प्राचारांग आदि एकादशांगी, छेद सूत्रों आदि सभी जैनागमों की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में समय-समय पर किये गये उल्लेखों का विस्तृत रूप से जो विवरण इस अध्याय में प्रस्तुत किया जा चुका है, उससे यह सिद्ध हो जाता है कि यापनीय परम्परा के साधु, साध्वी, श्रावक व थाविका सभी आचारांगादि जैन आगमों को पूर्णत: प्रामाणिक मानते थे । इस तरह यापनीय परम्परा ने रत्नत्रय की पूजा, तीर्थंकरों के चरणचिह्नों की पूजा और मूर्तिपूजा को किस-किस समय किस क्रम से अपनाया, इस प्रश्न के समाधान के लिये आगमिक काल से लेकर यापनीय संघ के एक सुदढ़ संघ के रूप में उभरने और कतिपय प्रदेशों में श्वेताम्बर संघ और दिगम्बर संघ से भी अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रिय बनने के समय तक की ऐतिहासिक घटनाओं पर पूर्णत: निष्पक्ष होकर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करना होगा। इस सन्दर्भ में निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं :--- १. आचारांग आदि सभी आगमों में से किसी एक भी आगम में चतुर्विध तीर्थ के साधु, साध्वी, श्रावक अथवा श्राविका वर्ग के लिये समुच्चय रूप से अथवा व्यक्तिगत रूप से इस प्रकार का एक भी उल्लेख गहन खोज के अनन्तर भी नहीं उपलब्ध होता, जिसमें यह कहा गया हो कि व्रत, नियम, प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास, स्वाध्याय आदि प्रात्मोत्थान के दैनन्दिन कार्यों के समान, मूर्तिपूजा, मन्दिर निर्माण प्रादि कार्य भी प्रत्येक साधक के लिये अथवा सभी साधकों के लिये परमावश्यक अथवा अनिवार्य कर्तव्य हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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